SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 403
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३८० ] अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण (ग) तर्कन्यायमूलक-(१) काव्यलिङ्ग, (२) अनुमान एवं (३) अर्थान्तरन्यास। ४. शृङ्खलावैचित्र्यमूलक:- (१) कारणमाला, (२) एकावली, (३) मालादीपक और (४) सार। ५. अपह्नवमूलक:-(१) व्याजोक्ति, (२) वक्रोति और (३) मीलन या मीलित। ६. विशेषणवैचित्र्यमूलकः-(१) समासोक्ति और (२) परिकर। _ विशेषणवैचित्र्यमूलक अलङ्कार-वर्ग को स्वतन्त्र वर्ग नहीं मान कर मल्लिनाथ ने 'एकावली' की 'तरला' टीका में उसे औपम्य-गर्भ अलङ्कार-वर्ग का अवान्तर भेद 'विशेषण-विच्छित्ति' माना है। ___मल्लिनाथ ने सादृश्यमूलक और औपम्य-गर्भ अलङ्कार-वर्गों को पृथक्पृथक् रखा है। औपम्य-वर्ग में अलङ्कार को आचार्य रुद्रट ने विभाजित किया था। रुय्यक आदि ने सादृश्यमूलक-वर्ग की कल्पना की थी। सादृश्यमूलक-वर्ग में औपम्य-गर्भ अलङ्कार भी आ ही जाते हैं । अतः, दोनों वर्गों को अलग-अलग मानने में अलङ्कार-तत्त्व का अनुरोध नहीं, केवल स्पष्टीकरण का उद्देश्य है, जो व्याख्याता या टीकाकार के पक्ष में स्वाभाविक है । ___ रुद्रट, रुय्यक, विद्याधर और विद्यानाथ के वर्गीकरण की परीक्षा से यह स्पष्ट है कि उनमें से किसी एक आचार्य का वर्गीकरण सर्वथा पूर्ण नहीं। रुय्यक के वर्गों को स्वीकार करने वाले विद्याधर तथा विद्यानाथ ने भी स्वेच्छा से काव्यालङ्कारों को उन वर्गों में विभक्त किया है। इस प्रकार रुय्यक ने अलङ्कार-विशेष को यदि एक वर्ग में रखा तो अन्य आचार्यों ने उसी अलङ्कार को किसी दूसरे वर्ग में वर्गीकृत किया है। विशेष वर्ग में अलङ्कार-विशेष को वर्गीकृत करने में मतैक्य का अभाव वर्गीकरण के आधार की अशक्ति का ही सूचक है। फिर भी, संस्कृत के उक्त आचार्यों ने जितने अलङ्कार-वर्गों की कल्पना की है उन्हें मिला-जुला कर वर्गीकरण का व्यापक आधार बनाया जा सकता है । रुय्यक के अलङ्कार-वर्गों के साथ रुद्रट के वास्तव तथा श्लेष, और विद्यानाथ के प्रतीयमान-रसभावादि वर्गों को मिला कर संस्कृत-अलङ्कार-शास्त्र के सभी स्वीकार्य अलङ्कारों का वर्गीकरण किया जा सकता है। १. विद्यानाथ, प्रतापरुद्रयशोभूषण, पृ० ३३८-३६
SR No.023467
Book TitleAlankar Dharna Vikas aur Vishleshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhakant Mishra
PublisherBihar Hindi Granth Academy
Publication Year1972
Total Pages856
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy