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अनङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
बल देकर रुद्रट ने उसका एक ही भेद स्वीकार किया है। 'काव्यालङ्कार" के टीकाकार नमिसाधु ने इसके भी व्यस्त रूप की सम्भावना का सङ्क ेत दिया है। भामह ने उपमान से उपनेय के आधिक्य वर्णन में व्यतिरेक स्वीकार किया था । उद्भट तथा वामन ने उन्हीं की व्यतिरेक-विषयक मान्यता को स्वीकार किया । दण्डी ने उपमेय तथा उपमान के भेद - कथन में तथा उपमान से उपमेय के आधिक्य वर्णन में व्यतिरेक की सत्ता स्वीकार की रुद्रट के व्यतिरेक का प्रथम प्रकार पूर्ववर्ती आचार्यों के मतानुसार ही कल्पित है । उसके उक्त तीन भेदों की सम्भावना भी उद्भट के व्यतिरेक लक्षण मेंजिसमें उपमेय की उत्कृष्टता तथा उपमान की निकृष्टता के हेतु के दृष्ट या अदृष्ट होने पर बल दिया गया है—पष्ट थी । रुद्रट ने उपमेय से उपमान के आधिक्य - कथन में जो व्यतिरेक का दूसरा प्रकार माना है, वह उनकी स्वतन्त्र कल्पना है । इस व्यतिरेक प्रकार का औचित्य चिन्त्य है । उपमान से उपमेय के आधिक्य-प्रदर्शन में ही वस्तुतः अलङ्कारत्व माना जाना चाहिए । उपमान में तो उपमेय से आधिक्य की स्वीकृति रहा ही करती है । उपमान की योजना उपमेय की प्रभाव वृद्धि के लिए होती है । अतः, जो पदार्थ प्रभावाधिक्य के लिए ख्यात रहता है, उसे ही किसी पदार्थ के प्रभाव की अभिवृद्धि के लिए उपमान के रूप में लाया जाता है । स्पष्टतः प्रस्तुत विषय के प्रभाव को बढ़ाने के लिए किसी पदार्थ की उपमान के रूप में योजना के मूल में यह मान्यता निहित है कि वह अप्रस्तुत पदार्थ प्रस्तुत की अपेक्षा अधिक प्रभावोत्पादक है | अतः उपमेय से उपमान के गुणाधिक्य प्रतिपादन का आयास स्वतः सिद्ध के साधन के प्रयास के समान है । उसमें अलङ्कारत्व का विधायक चमत्कार मानना समीचीन नहीं ।
उत्प्रेक्षा
औपम्य वर्गगत उत्प्रेक्षा अलङ्कार के तीन रूपों का लक्षण निरूपण रुद्रट ने किया है । उसके एक लक्षण में कहा गया है कि जहाँ उपमान और उपमेय में अतिशय सादृश्य के कारण उनमें अभेद का प्रतिपादन किये जाने पर सिद्ध उपमान का सद्भाव उपपन्न हो और उस उपमान में जिस गुण-क्रिया का वस्तुतः सद्भाव नहीं हो उसका उसमें आरोप किया जाय, वहाँ उत्प्रेक्ष
१. व्यस्तयोरपि केचिदिच्छन्ति । - वही, नमिसाधुकृत टीका, पृ० २३४