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षष्ठ अध्याय
अलङ्कारों का पारस्परिक भेद
हम देख चुके हैं कि भारतीय अलङ्कार - शास्त्र में एक अलङ्कार से धीरेधीरे अनेक अलङ्कार उत्पन्न हुए हैं। एक अलङ्कार के व्यापक स्वरूप के आधार पर एकाधिक अलङ्कारों के स्वरूप की कल्पना के लिए उन अलङ्कारों में कुछ व्यावर्तक धर्म की कल्पना कर ली गयी है । कुछ अलङ्कारों का रूपगत भेद तो इतना सूक्ष्म है कि अपाततः वे अभिन्न ही जान पड़ते हैं । दो या दो से अधिक समान दीखने वाले अलङ्कारों का पारस्परिक भेद-निरूपण किसी अलङ्कार के विशिष्ट स्वरूप के स्पष्टीकरण की दृष्टि से आवश्यक है । मिलतेजुलते स्वरूप वाले अन्य अलङ्कार से एक अलङ्कार के अभिन्न होने या उसमें अन्तर्भूत होने के सम्भावित भ्रम का निराकरण करने के लिए कुछ आचार्यों ने तत्तद् अलङ्कारों के बीच भेदक तत्त्व का विवेचन किया है। ध्यातव्य है कि सभी आचार्य सभी अलङ्कारों के स्वरूप के सम्बन्ध में एक-मत नहीं हैं । कुछ अलङ्कारों के सम्बन्ध में तो एक आचार्य की धारणा दूसरे आचार्य की धारणा के ठीक विपरीत है | ૨ एक आचार्य के किसी एक अलङ्कार का स्वरूप अन्य आचार्य के द्वारा निरूपित किसी अन्य अलङ्कार के स्वरूप से अभिन्न है ।
१. वामन, रुद्रट आदि आचार्यों ने अप्रस्तुत के कथन से प्रस्तुत की व्यञ्जना को समासोक्ति का लक्षण माना था; पर इसके विपरीत आधुनिक आचार्य - मम्मट, रुय्यक आदि - प्रस्तुत कथन में अप्रस्तुत की व्यञ्जना को समासोक्ति मानते हैं ।
२. लेश से उद्भिन्न वस्तु के छिपाने में दण्डी लेश अलङ्कार मानते थे पर रुक आदि ने उसे व्याजोक्ति माना है । ऐसे अनेक उदाहरण देखे जा सकते हैं ।