________________
६५८ ]
अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
वस्तुतः, संसृष्टि एवं सङ्कर को स्वतन्त्र अलङ्कार नहीं मानकर अलङ्कारों की सङ्कीर्णता के दो अलग-अलग रूप माना जाना चाहिए। अतः, उनके पृथक्-पृथक् अस्तित्व का प्रश्न विशेष महत्त्व नहीं रखता। सुविधा के लिए अलङ्कारों की परस्पर निरपेक्ष तथा सापेक्ष स्थिति को संसृष्टि और सङ्कर संज्ञा से पृथक्-पृथक् अभिहित किया जा सकता है। सङ्कीर्ण-भेद
सङ्कीर्ण का एक भेद संसृष्टि है तथा दूसरा सङ्कर । सङ्कर के सन्देह-सङ्कर तथा अङ्गाङ्गिभाव-सङ्कर; इन दो भेदों के साथ उद्भट ने शब्दालङ्कार तथा अर्थालङ्कार के सङ्कर के आधार पर दो और भेद (शब्दालङ्कार+अर्थालङ्कार तथा अर्थालङ्कार+अर्थालङ्कार) माने थे। पीछे चलकर समप्रधान एकवचनानुप्रवेश तथा सङ्कर-सङ्कर भेदों की भी कल्पना हुई। इस प्रकार सङ्कर के निम्नलिखित भेदों की कल्पना की गयी :-(१) सन्देहसङ्कर, (२) अङ्गाङ्गिभाव सङ्कर, (३) समप्रधान सङ्कर, (४) एकवचनानुप्रवेश सङ्कर तथा (५) सङ्कर-सङ्कर । इनके अतिरिक्त शब्दालङ्कार का अर्थालङ्कार के साथ तथा अर्थालङ्कार का अर्थालङ्कार के साथ सङ्कर के आधार पर भी उसके दो भेद मान्य हुए हैं। अन्य अलङ्कार
दो अलङ्कारों के मिश्रित रूप से भी कुछ आचार्यों ने नवीन अलङ्कार का सद्भाव माना है। उपमा-रूपक आदि ऐसे ही अलङ्कार है, पर अलङ्कारों के मिश्रण से नवीन अलङ्कार की कल्पना से उसकी संख्या अनन्त हो जायगी। इसीलिए साहित्यशास्त्र में ऐसी कल्पना का स्वागत नहीं हुआ। ऐसे अलङ्कारों के विकास-क्रम का अध्ययन आवश्यक नहीं जान पड़ता।