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२४२ ] बलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण निश्चय
निश्चय अलङ्कार की परिभाषा में कहा गया है कि जहाँ विशेष-प्रतिपादन के लिए विहित या आशङ्कित का निषेध किया जाय वहाँ निश्चय नामक अलङ्कार होगा ।' विहित के तात्त्विक निषेध में कोई चमत्कार नहीं। उसके निषेधाभास में आक्षेप अलङ्कार होता है। आशङ्का के स्थल में निषेध को आचार्य दण्डी ने निर्णयोपमा कहा था। आक्षेप और निर्णयोपमा से पृथक् निश्चय की कल्पना पावश्यक नहीं। स्वयं शोभाकर के निश्चय-उदाहरण 'सतां कदर्थनां व्ययं' मादि में निषेध तात्त्विक नहीं है। उसमें आक्षेप अलङ्कार माना जा सकता है। विध्याभास
विध्याभास का नाम-रूप शोभाकर ने आचार्य रुय्यक के द्वितीय आक्षेपबक्षण से लिया है। रुय्यक के लक्षण 'अनिष्ट विध्याभासश्च' से विध्याभास अंश लेकर शोभाकर मे इस स्वतन्त्र अलङ्कार का नामकरण कर लिया है तथा उसी भाक्षेप-धारणा को इस प्रकार व्यक्त किया है कि जहां अविधेय अनिष्ट का विधान किया जाता है वहां विधान बाधित होने के कारण विध्याभास-मात्र में परिणत हो जाता है। भतः वहाँ विध्याभास नामक अलङ्कार होता है। स्पष्टतः, यह आक्षेप से स्वतन्त्र अलङ्कार नहीं है । प्राचीन आचार्यों के अलङ्कार की ही नवीन संज्ञा से भवतारणा की गयी है। सन्देहाभास
सन्देह के पाधार पर शोभाकर ने सन्देहाभास अलङ्कार की कल्पना की है। उनकी मान्यता है कि जहाँ सन्दिह्यमान दो पदार्थों में से एक को अवश्यमेव स्वीकार्य बताना वक्ता का अभिप्राय हो वहाँ सन्देह के बाधित हो जाने से सन्देहाभास नामक अलङ्कार होता है । सन्देहाभास अलङ्कार की कल्पना भावश्यक नहीं जान पड़ती। इसमें सन्देह की स्थिति तो वस्तुतः आती ही नहीं, १. विहितस्याशंकितस्य वा विशेषागमाय निषेधो निश्चयः।
-शोभाकर, अलं० रत्ना० ४७ २. अनिष्टविधान विध्याभासः।
-वही, ४६, तुलनीय-रुय्यक, अलं० सू० ३६ ३. सन्दिह्यमानयोरेकत्र तात्पर्येच्छा सन्देहाभासः ।
-शोभाकर, अलङ्कार रत्ना० ५०