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________________ अलङ्कार-धारणा का विकास [ २४३ वक्ता की केवल साभिप्राय उक्ति रहती है। इसमें दो वस्तुओं में से एक का स्वीकार्यत्व भी स्पष्ट ही रहता है । उदाहरण में 'वल्लभ के आलिङ्गन का सुधारस तुम्हें प्रिय है या मान के विष की ज्वाला?'यह उक्ति प्रस्तुत की गयी है। इन दोनों में कौन अधिक प्रिय होगा-विष या अमृत-यह सन्देह का तो विषय हो ही नहीं सकता। अतः इस प्रश्न में वक्ता का अभिप्राय ही महत्त्व रखता है। वक्ता के इस प्रश्न में ही उसका उत्तर भी निहित है। इस प्रकार की उक्ति में मम्मट, रुय्यक आदि आचार्यों ने प्रश्नपूर्विका परिसंख्या का सद्भाव माना था । स्पष्ट है कि प्राचीन धारणा को ही नवीन नाम से प्रस्तुत करने का आयास शोभाकर ने किया है। विकल्पाभास _ विकल्पाभास में चमत्कार नहीं होने के कारण उसे अलङ्कार मानना उचित नहीं। दो वाञ्छित या अवाञ्छित पदार्थों में आकर्षण अथवा विकर्षण का समान बल हो तो उनमें से किसी के त्याग-ग्रहण में मानसिक द्वन्द्व की स्थिति आ सकती है, तथा कोई चमत्कार भी हो सकता है। विकल्पाभास के प्रदत्त उदाहरणों में विकल्प की कहीं स्थिति आती ही नहीं। विर्यय विपर्यय अलङ्कार में धर्म और धर्मी का विपर्यय हो जाता है। इस प्रकार कहीं धर्मी का धर्मत्व और धर्म का मित्व हो सकता है और कहीं अन्य वस्तु के धर्म का अन्य वस्तु-धर्म से विनिमय हो सकता है। अन्य वस्तु के धर्म का अन्यत्र आरोप की धारणा तो आचार्य दण्डी ने समाधि गुण में व्यक्त की थी, पर यह उससे इस अंश में भिन्न है कि इसमें दो के धर्मों का विनिमय हो जाता है। अलङ्कार के रूप में विपर्यय की प्रथम कल्पना का श्रेय शोभाकर को है। समाधि गुण की धारणा में परिवृत्ति की पारस्परिक विनिमय की धारणा को मिला कर विपर्यय के स्वरूप का निर्माण किया गया है। अचिन्त्य अचिन्त्य विभावना से स्वतन्त्र अस्तित्व नहीं रखता। कारण के स्वभाव से विरुद्ध स्वभाव वाले कार्य की उत्पत्ति में शोभाकर ने अचिन्त्य अलङ्कार १. द्रष्टव्य-शोभाकर, अलङ्कार रत्ना० पृ० ८६ २. धर्मिधर्मभावस्य धर्माणां विनिमयो विपर्ययः । -वही, ५७
SR No.023467
Book TitleAlankar Dharna Vikas aur Vishleshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhakant Mishra
PublisherBihar Hindi Granth Academy
Publication Year1972
Total Pages856
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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