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अलङ्कारों का स्वरूप-विकास
[ ५२३. कार्यकारण के पौर्वापर्य का विपर्यय उसके और दो रूप हैं।' उपमान से उपमेय के अध्यवसान की कल्पना मौलिक है। प्रस्तुत के अन्य प्रकारेण वर्णन की कल्पना का आधार उद्भट की 'भेद में अभेद तथा अभेद में भेद' की कल्पना है। 'काव्यप्रकाश' की 'नागेश्वरी' टीका में अतिशयोक्ति के प्रथम भेद-उपमान से उपमेय के अध्यवसानरूप-के उदाहरण-श्लोक में 'भेद में अभेद' का अध्यवसाय दिखा कर उक्त भेद को उद्भट के 'भेदेनान्यत्व' रूप अतिशयोक्ति से अभिन्न बताने का प्रयास किया गया है। पर इस तथ्य की उपेक्षा नहीं की जा सकती कि मम्मट का अतिशयोक्ति-लक्षण विकास की दृष्टि से पूर्ववर्ती आचार्यों के लक्षण से अग्रिम चरण है।
रुय्यक ने मम्मट के मत का अनुसरण करते हुए अध्यवसित के प्राधान्य के स्थल में अतिशयोक्ति की सत्ता स्वीकार की।२ उपमान के द्वारा उपमेय का निगरण होने से अध्यवसाय का स्वरूप बनता है। इस में उपमेय तो सदा गोण ही रहता है । अतः, प्रधानता या तो अध्यवसाय रूप क्रिया की हो सकती है या उपमान की। अध्यवसान साध्य हो तो क्रिया की प्रधानता होगी, जो उत्प्रेक्षा का विधान करेगी। अतिशयोक्ति में अध्यवसान सिद्ध होता है। अतः, प्रधानता उपमान की रहती है। अध्यवसित के प्राधान्य में अतिशयोक्ति मानने वाला यह मत मम्मट के 'परेण (उपमान से) प्रकृतस्य निगीर्याध्यवसान' के मत से अभिन्न है।
विश्वनाथ ने मम्मट, रुय्यक आदि की अतिशयोक्ति-धारणा का ही अनुगमन किया है। उन्होंने अतिशयोक्ति की परिभाषा में कहा है कि 'अध्यवसाय का सिद्ध होना' अतिशयोक्ति अलङ्कार है। शोभाकर, जयदेव, अप्पय्य, दीक्षित, विद्याधर, विद्यानाथ, जगन्नाथ आदि आचार्यों ने मम्मटरुय्यक-विश्वनाथ-सम्मत अतिशयोक्ति-लक्षण ही अपनाया है। जगन्नाथ के १. निगीर्याध्यवसानन्तु प्रकृतस्य परेण यत् ।
प्रस्तुतस्य यदन्यत्वं यद्यर्थोक्तौ च कल्पनम् । कार्यकारणयोर्यश्च पौर्वापर्यविपर्ययः ।
विज्ञेयातिशयोक्तिः सा-मम्मट, काव्यप्र० १०,१५३ २. अध्यवसितप्राधान्ये त्वतिशयोक्तिः ।
-रुय्यक, अलं० सर्वस्व सूत्र सं० २२. ३. सिद्धत्वेऽध्यवसायस्यातिशयोक्तिनिगद्यते ।
-विश्वनाथ, साहित्यद० १०,६४