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अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
अनुसार उपमान के द्वारा उपमेय का निगरण ( जो अध्यवसाय का स्वरूप है ) ही अतिशयोक्ति है । १ अप्पय्य दीक्षित ने निगीर्याध्यवासन - रूप अतिशयोक्ति को रूपकातिशयोक्ति संज्ञा दी है । उन्होंने सापह्नवातिशयोक्ति की भी कल्पना की है । कार्य-कारण- पौर्वापर्य के व्यत्यय को लेकर चपला, अत्यन्ता आदि अतिशयोक्ति विधाएँ उन्होंने मानी हैं | 3
अतिशयोक्ति-भेद
उद्भट के पूर्व प्रतिशयोक्ति के भेदोपभेदों का निरूपण सैद्धान्तिक रूप में तो नहीं हुआ था; पर दण्डी ने अतिशयोक्ति के संशय, निर्णय तथा आश्रयाधिक्य रूपों के उदाहरण दिये थे । ४ उद्भट ने उसके चार रूप माने हैं - (१) भेद में अभेद, (२) अभेद में भेद, (३) वस्तुतः असत् का सम्भावना में निबन्धन तथा · (४) कार्य और कारण के पौर्वापर्य का विपर्यय । ५ मम्मट ने भी अतिशयोक्ति के चार रूप स्वीकार किये - ( १ ) उपमान से उपमेय का निगरणपूर्वक अध्यवसान, (२) प्रस्तुत का अन्यत्व, (३) 'यदि' के अर्थ की कल्पना या सम्भावना से निबन्धन तथा ( ४ ) कार्यकारणपौर्वापर्यविपर्यय । ६ रुय्यक ने भेद में अभद अभेद में भेद सम्बन्ध में असम्बन्ध रूप भेद माना है । इसके विपरीत असम्बन्ध में सम्बन्ध भेद होता है । कार्यकारणपौर्वापर्य विपर्यय की जगह - रुय्यक ने 'कार्यकारणपौर्वापर्यविध्वंस' कहा है । कार्य और कारण के - स्वाभाविक क्रम का ध्वंस कार्य का कारण से पूर्व-भाव तथा सहभाव दिखाने से हो सकता है । इस प्रकार रुय्यक के अनुसार कार्यकारण पौर्वापर्यध्वंस के दो रूप हैं । जयरथ ने इस ध्वंस के पाँच रूप माने हैं । उनके अनुसार दो प्रकार से कार्यकारण का ध्वंस दिखाया जा सकता है और तीन प्रकार
१. विषयिणा विषयस्य निगरणमतिशयोक्तिः
....। जगन्नाथ, रसगंगा ० पृ० ४७६
२. रूपकाक्तिशयोक्तिः स्यान्निगीर्याध्यवसानतः । - अप्पय्यदी०, कुवलया ० ३६
३. वही, ३७-४३
४. द्रष्टव्य, दण्डी, काव्यादर्श, २, २१७ -१९
५. द्रष्टव्य, उद्भट, काव्यालं० सारसं० २,२३-२५
६. मम्मट, काव्यप्र० १०, १५३
७. रुय्यक, अलं० सर्वस्व पृ० ६६-६६