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हिन्दी रीति-साहित्य में अलङ्कार विषयक उद्भावनाएँ [ ३४१
सूरति मिश्र
सूरति मिश्र ने भी 'कुवलयानन्द' की लक्ष्य - लक्षण - शैली में चन्द्रालोककार के द्वारा निरूपित (अप्पय्य के द्वारा स्वीकृत) अलङ्कारों के लक्षण उदाहरण दिये हैं ।
रघुनाथ
रघुनाथ ने 'रसिकमोहन' में 'कुवलयानन्द' के आधार पर अलङ्कारों का स्वरूप - निरूपण किया है । व्याजस्तुति को रघुनाथ ने व्याजोक्ति कहा और उसके दो रूपों – निन्दा के व्याज से की जाने वाली स्तुति तथा स्तुति के व्याज से की जाने वाली निन्दा - का सोदाहरण-निरूपण किया । १ परम्परा से स्वीकृत व्याजोक्ति अलङ्कार को भी उन्होंने स्वीकार किया । फलतः, 'रसिकमोहन' में दो बार व्याजोक्ति का उल्लेख किया गया है । रघुनाथ ने प्र ेमात्युक्ति-नामक अलङ्कार की कल्पना की है । यह वस्तुतः अलङ्कार का स्वतन्त्र रूप नहीं । अद्भुत तथा अतथ्य-वर्णन में अत्युक्ति अलङ्कार की कल्पना की जा चुकी थी । प्र ेमभाव के अत्युक्तिपूर्ण वर्णन में प्रमात्युक्ति का सद्भाव रघुनाथ ने कल्पित कर लिया है । यह अत्युक्ति में ही अन्तर्भुक्त है । स्पष्टतः, अलङ्कार के क्ष ेत्र में रघुनाथ की कोई मौलिक उद्भावना नहीं ।
रसरूप
रसरूप ने 'तुलसीभूषण' में अलङ्कारों के लक्षण मम्मट, अप्पय्य आदि की विचार- सरणि का अनुसरण करते हुए दिये हैं । 'तुलसीभूषण' का वैशिष्ट्य यह है कि उसमें उदाहरण तुलसी-साहित्य से ही लिये गये हैं । रसरूप ने एक सौ ग्यारह अलङ्कारों का सभेद निरूपण किया है । " शब्दालङ्कारों में अनुप्रास, यमक, वक्रोक्ति, श्लेष, चित्र तथा पुनरुक्तवदाभास का विवेचन किया गया है । 'चन्द्रालोक' आदि की पद्धति पर अर्थालङ्कारों का निरूपण किया
१. निंदा सो अस्तुति जहाँ प्रगट परति है जोइ । अस्तुति सो निंदा जहाँ व्याज उक्ति तह होइ ॥
- रघुनाथ, रसिकमोहन, २१०
२. एकादस अरु एक शत मुख्य अलङ कृत रूप ।
- रसरूप, तुलसीभूषण, पृ० ३५