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अलङ्कारों का पारस्परिक भेद
[ ७६३. अद्भुत पदार्थ के — लिङ्ग के - दर्शन से भूत और भावी अर्थ का -लिङ्गी का - साक्षात्कार होता है । भाविक में भूत और भावी अर्थ का प्रत्यक्षायमाणत्व योगलक्षणसन्निकर्ष के समान होता है । जैसे योगी देश-काल की सीमा को पार कर परोक्ष वस्तु का साक्षात्कार कर लेते हैं, वैसे ही काव्य में सहृदय पाठक भूत और भावी अर्थों को प्रत्यक्ष देख लेते हैं । यही भाविक का स्वरूप है, जो काव्यलिङ्ग के स्वरूप से सर्वथा भिन्न है । '
भाविक और रसवत्
भाविक और रसवत् - दोनों में अर्थ का प्रत्यक्ष बिम्बग्रहण अपेक्षित होता है; पर दोनों का भेद यह है कि रसवत् अलङ्कार में जहाँ अर्थ के साथ भावक : के हृदय का सम्वाद तथा साधारणीकरण की प्रक्रिया से अद्व ेत ज्ञान-दशा में रति आदि चित्तवृत्ति का आस्वादन अपेक्षित होता है, वहाँ भाविक में भावक तटस्थ भाव से अर्थ का - अप्रत्यक्ष अर्थ का - प्रत्यक्ष दर्शन मात्र करता है । अर्थ के साथ सहृदय के हृदय का सम्वाद रसवत् का तथा तटस्थ भाव से भूत-भावी अर्थ का साक्षात्कार भाविक का व्यवच्छेदक धर्म है ।
भाविक और स्वभावोक्ति
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भाविक में लोकोत्तर वस्तु का — भूत-भावी वस्तु का — स्फुट वर्णन होता है, जबकि स्वभावोक्ति में लौकिक वस्तु का स्फुट वर्णन होता है । दोनों में दूसरा भेद यह है कि भाविक में अर्थ का तटस्थ भाव से साक्षात्कार किया जाता है, जबकि स्वभावोक्ति में लौकिक वस्तु के स्वभाव-वर्णन से उस वस्तु के साथ सहृदय के हृदय का सम्वाद सम्भव होता है । 3
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नाप्यत्यद्भुतपदार्थदर्शनादतीतानागतयोः प्रत्यक्षत्वप्रतीतेः काव्यलिङ्गमिदम् (भाविकम्) । लिङ्गलिङ्गिभावेन प्रतीत्यभावात् । योगिवत् प्रत्यक्षतया प्रतीतेः । — रुय्यक, अलङ्कारसर्वस्व ; पृ० २२३ २. नाप्ययं (भविकालङ्कारः ) परिस्फुरद्र पतया सचमत्कारप्रतिपत्ते रसवदलङ्कारः । रत्यादिचित्तवृत्तीनां तदनुषक्ततया विभावादीनामपि साधारण्येन हृदयसम्वादितया परमाद्वैतज्ञानिवत् प्रतीतौ तस्य भावात् । इह (भाविके ) तु ताटस्थ्येन भूतभाविनां स्फुटतया भिन्नस - र्व ज्ञवत् प्रतीतेः । -वही, पृ० २२४ ३. नापीयं सूक्ष्मवस्तुस्वभाववर्णनात् स्वभावोक्तिः । तस्यां (स्वभावोक्तौ) लौकिकवस्तुगत सूक्ष्मधर्मवर्णने साधारण्येन हृदयसम्वादसम्भवात् । इह (भाविके) लोकोत्तराणां वस्तूनां स्फुटतया ताटस्थ्येन च प्रतीते: । -वही, पृ० २२४
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