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अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
चुके हैं कि सामान्यतः उपमान में उपमेय की अपेक्षा अधिक गुण की धारणा निहित रहती है। प्रतीप में जब वर्ण्य वस्तु को ही उपमान बना कर उसके साथ अप्रस्तुत की उपमा दी जाती है, तब पाठक को उपमान की अपेक्षा उपमेय में गुणोत्कर्ष का बोध हो जाता है। अतः, उपमा से प्रतीप का एक भेदक तत्त्व यह भी माना जा सकता है कि जहां उपमा में कवि का उद्देश्य उपमेय का उपमान के साथ सादृश्य-निरूपण कर उपमेय का उपस्कार करना होता है, वहां प्रतीप में उपमान का उपमेय के साथ सादृश्य-निरूपण कर उपमान की अपेक्षा उपमेय के गुणाधिक्य का बोध कराना इष्ट होता है । मम्मट, रुय्यक आदि आचार्यों ने प्रतीप की परिभाषा में ही उसके उक्त व्यावर्तक धर्म का उल्लेख कर दिया है। उपमान का आक्षेप-निन्दा या निषेध-तथा उसके तिरस्कार के लिए उपमेय के रूप में उसकी कल्पना, उनके अनुसार प्रतीप के दो रूप हैं। इन दोनों रूपों में परिणामतः उपमान की अपेक्षा उपमेय के आधिक्य का बोध होता है।' अप्पय्य दीक्षित के पांचो प्रतीप-भेदों में उपमेय के उत्कर्ष पर बल दिया गया है। निष्कर्ष यह कि :
(क) प्रतीप रूप-विधान की दृष्टि से उपमा का विपरीतधर्मा है; क्योंकि इसमें प्रसिद्ध उपमान को उपमेय के रूप में कल्पित किया जाता है।
(ख) दोनों अलङ्कारों की योजना में कवि के उद्देश्य में यह भेद होता है कि उपमा में कवि दो वस्तुओं-उपमेय और उपमान--में सादृश्य दिखाकर प्रस्तुत का उपस्कार करना चाहता है; पर प्रतीप में वह उपमान की अपेक्षा वर्ण्य वस्तु को अधिक उत्कृष्ट प्रमाणित करना चाहता है ।
उपमा और परिणाम
परिणाम में रूपक की तरह प्रकृत पर अप्रकृत का आरोप होने से दोनों की अभेदप्रतीति होती है। अतः, रूपक की तरह परिणाम भी अभेदप्रधान अलङ्कार है । उपमा में प्रकृत का अप्रकृत के साथ सादृश्य-निरूपण होने से दोनों
१. ""उपमानतया प्रसिद्धस्य उसमानान्तरविवक्षयाऽनादरार्थमुपमेयभावः
कल्प्यते"-मम्मट, काव्यप्रकाश, १०,१३३ की वृत्ति तथा उपमा
नस्याक्षेप उपमेयताकल्पनं वा प्रतीपम् । -रुय्यक, अलङ्कार सूत्र, ६९ २. द्रष्टव्य-अप्पय्य दीक्षित, कुवलयानन्द, १२-१६