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अलङ्कारों का स्वरूप-विकास
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उपमा-भेद
आचार्य भरत के समय से ही उपमा के अनेक भेदोपभेदों की कल्पना होती रही है। भरत ने उपमा के पांच भेद-(१) प्रशंसोपमा, (२) निन्दोपमा, (३) कल्पितोपमा, (४) सदृशी उपमा तथा (५) किञ्चत्सदृशी उपमा-स्वीकार किये हैं।' भामह ने उसके तीन भेदों का उल्लेख किया-(१) यथा, इन आदि वाचक शब्द-प्रयोग पर आधृत, (२) समासगा तथा (३) वति प्रत्यययुक्त क्रिया-सामान्य वाली। उन्होंने अनेक भेदों की सम्भावना स्वीकार कर भी उनका विवेचन अनावश्यक समझा ।२ दण्डी ने उसके बत्तीस भेद किये हैं। वे हैं :-धर्मोपमा, वस्तूपमा, दिपर्यासोपमा, अन्योन्योपमा, नियमोपमा, अनियमोपमा, समुच्चयोपमा, अतिशयोपमा, उत्प्रेक्षितोपमा, अद्भुतोपमा, मोहोपमा, संशयोपमा, निर्णयोपमा, श्लेषोपमा, समानोपमा, निन्दोपमा, प्रशंसोपमा, आचिख्यासोपमा, विरोधोपमा, प्रतिषेधोपमा, चटूपमा, तत्त्वाख्यानोपमा, असाधारणोपमा, अभूतोपमा, असम्भावितोपमा, बहूपमा, विक्रियोपमा, मालोपमा, वाक्यार्थोपमा, प्रतिवस्तूपमा, तुल्ययोगोपमा तथा हेतूपमा । वामन ने उपमा के कल्पिता एवं लौकिकी भेद कर पुनः पदवृत्ति तथा वाक्यवृत्ति-रूप में दो विभाग किये हैं। उन्होंने पूर्णोपमा तथा लुप्तोपमा भेदों का भी निर्देश किया है। उद्भट ने व्याकरण-सिद्धान्त के आधार पर श्रोती, आर्थी भेदों की कल्पना की।' उनके समय से पूर्णा एवं लुप्ता के भेदोपभेदों की कल्पना की जाने लगी। पूर्णा के श्रीती एवं आर्थी तथा लुप्ता के उपमेय, उपमान, साधारण धर्म तथा वाचक शब्द में से एक, दो या तीन के अनुपादान के आधार पर पाँच भेद स्वीकृत हुए । उसके भी श्रौती तथा आर्थी विभाग किये गये। श्रौती एवं आर्थी पूर्णा पुन: तद्धितगत, समास-गत एवं वाक्यगत होने के आधार पर छह प्रकार की मानी गयी। लुप्तोपमा के इक्कीस भेद कल्पित हुए। निम्नलिखित तालिका से परवर्ती आचार्यों के उपमा-विभाग की धारणा प्रस्तुत की जा सकती है
१. प्रशंसा चैव निन्दा च कल्पिता सदृशी तथा। किञ्चिच्च सदृशी ज्ञेया ह्य पमा पञ्चधा पुनः ॥-भरत, ना० शा.
२. द्रष्टव्य, भामह, काव्यालं० २,३०-३८ ३. द्रष्टव्य, दण्डी, काव्याद० २,१५-५० ४. द्रष्टव्य,वामन, काव्यालं० सू० १,२,२-७ ५. द्रष्टव्य, उद्भट, काव्यालं. सारसं० १,३३-३८