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________________ ४३४ ] अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण वस्तु (उपमान) से तुलना करने पर वर्ण्य वस्तु का गुण-या उसके गुण का प्रभाव-भी स्पष्ट हो जायगा। कुछ आधुनिक आलोचकों ने यह युक्ति दी है कि प्रस्तुत या वर्ण्य वस्तु के गुणोत्कर्ष से प्रभावित होकर ही कवि अप्रस्तुत की योजना करता है । इस तर्क में कवि की अनुभूति पर तो ध्यान रखा गया है; पर उस अनुभूति की अभिव्यञ्जना को स्वाभाविक पर्युत्सुकता की उपेक्षा कर दी गयी है । आचार्य रामचन्द्र शुक्ल की यह मान्यता उचित है कि अप्रस्तुतयोजना की सार्थकता प्रस्तुत की प्रभाववृद्धि में ही है ।' कवि प्रस्तुत की प्रभाव-वृद्धि के लिए ऐसा अप्रस्तुत सामने लाता है जिसमें, प्रस्तुत-सा गुण अधिक मात्रा में तथा प्रसिद्ध रूप में रहता है। अतः, उपमेय की अपेक्षा उपमान में गुणोत्कर्ष मानने में आचार्यों का तात्पर्य यह नहीं था कि उपमान में अच्छे गुण ही रहा करते हैं। गुणोत्कर्ष से अभिप्राय किसी धर्म (सद्गुण या अवगुण) के आधिक्य का तथा सुविख्यात होने का ही था। जब भरत के समय से ही निन्दोपमा, आदि को उपमा के रूप में स्वीकृति मिलती रही, तब आचार्य गुणोत्कर्ष का अर्थ सद्गुण मात्र का उत्कर्ष कैसे समझते ? गुण शब्द का प्रयोग आज कुछ अर्थ-विकास के साथ होता है । केवल गुण कहने से सद्गुण के अर्थ का बोध होता है तथा हीन गुण के बोध के लिए 'अव' 'दुर' आदि उपसर्ग के साथ गुण शब्द का प्रयोग आवश्यक माना जाता है। अच्छे गुण के बोध के लिए 'सत्' उपसर्ग लगाया भी जाता है; पर वह आवश्यक नहीं माना जाता । पहले गुण का अर्थ व्यापक था। अच्छे तथा बरे के लिए 'सत्' तथा 'अव' आदि उपसर्ग का प्रयोग आवश्यक था। यह ध्यातव्य है कि किसी आचार्य ने गुणोत्कर्ष के लिए सद्गुण के उत्कर्ष का भाव व्यक्त नहीं किया है। देव ने गुण-साम्य का अर्थ सद्गुण-साम्य मान कर अपनी ओर से यह जोड़ दिया कि अवगुण की समता में भी उपमा होगी। गुण से ही अर्थबोध हो जाने के कारण अवगुण शब्द का प्रयोग अनावश्यक है। हिन्दी के अन्य रीति-आचार्यों ने उपमा अलङ्कार की परिभाषा में परम्परा का ही निर्वाह किया है। उपमा-धारणा के विकास-क्रम की इस परीक्षा का निष्कर्ष यह है कि जहां वर्ण्य वस्तु की अन्य वस्तु से सादृश्य के कारण तुलना की जाती है, वहां उपमा अलङ्कार होता है। सादृश्य के लिए इसमें दो सदृश वस्तुओं का परस्पर पार्थक्य आवश्यक है । शास्त्र में विवेचित उपमा से काव्यशास्त्रीय उपमा के भेद के लिए इसमें सादृश्यगत चारुता अपेक्षित है। १. द्रष्टव्य, रामचन्द्र शुक्ल, चिन्तामणि ।
SR No.023467
Book TitleAlankar Dharna Vikas aur Vishleshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhakant Mishra
PublisherBihar Hindi Granth Academy
Publication Year1972
Total Pages856
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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