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________________ अलङ्कारों का स्वरूप-विकास [ ६४७ रूप में भी उस लक्षण की व्याप्ति है।' निष्कर्षतः, जगन्नाथ की यह प्रहर्षण-परिभाषा ही समीचीन है। उद्देश्य-सिद्धि के लिए अपेक्षित यत्न के विना भी अभीष्ट अर्थ का साक्षात् लाभ प्रहर्षण का सामान्य लक्षण है। इसके तीन रूप हैं (१) विना यत्न के अभीष्ट अर्थ की प्राप्ति, (२) वाञ्छित अर्थ से अधिक की प्राप्ति तथा (३) फल-प्राप्ति के यत्न के बीच ही फल का साक्षात् लाभ । विषादन विषादन की भी कल्पना जयदेव के समय ही हुई। जयदेव तथा अप्पय्य दीक्षित ने अभीष्ट अर्थ के विरुद्ध अर्थ की प्राप्ति में विषादन अलङ्कार माना था।२ पण्डितराज जगन्नाथ ने भी विषादन का यही स्वरूप स्वीकार किया है । अभीष्ट अर्थ के विरुद्ध अर्थ की प्राप्ति विषाद का हेतु होती है। इसलिए विषादन इस अलङ्कार की प्रकृति के अनुकूल संज्ञा है। विषादन के स्वरूप में विकास की कोई स्थिति नहीं आयी है। 'कुवलयानन्द' की टिप्पणी में इस तथ्य का सङकेत दिया गया है कि विषादन को स्वतन्त्र अलङ्कार नहीं मानकर कुछ आचार्य उसे काव्यलिङ्ग में ही अन्तभुक्त मानते हैं। हमने इसके औचित्य पर अपरत्र विचार किया है। उल्लास उल्लास अलङ्कार भी जयदेव तथा अप्पय्य दीक्षित की कल्पना है । एक के गुण तथा दोष से दूसरे के गुण-दोष के होने का वर्णन उनके अनुसार उल्लास का लक्षण है। किसी के गुण से दूसरे का गुण-वर्णन, किसी के गुण से दूसरे का १. साक्षादुद्देश्यकयत्नमन्तरेणाप्यभीष्टार्थस्य लाभः प्रहर्षणम् । इदं च सामान्यलक्षणं त्रिविधप्रहर्षणसाधारणम्।-जगन्नाथ, रसगङ्गा०, पृ०७६८ २. इष्यमाणविरुद्धार्थसम्प्राप्तिस्तु विषादनम् । -अप्पय्य दीक्षित, कुवलयानन्द, १३२ ३. अभीष्टार्थविरुद्धलाभो विषादनम् । -जगन्नाथ, रसगङ्गाधर, पृ० ८०१ ४. द्रष्टव्य-प्रस्तुत ग्रन्थ अध्याय २ ५. एकस्य गुणदोषाभ्यामुल्लासोऽन्यस्य तौ यदि । —अप्पय्य दीक्षित, कुवलयानन्द, १३३
SR No.023467
Book TitleAlankar Dharna Vikas aur Vishleshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhakant Mishra
PublisherBihar Hindi Granth Academy
Publication Year1972
Total Pages856
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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