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अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
दोष-वर्णन, किसी के दोष से दूसरे का गुण-वर्णन तथा किसी के दोष से दूसरे का दोष-वर्णन उल्लास के चार सम्भव रूप हैं। जगन्नाथ को भी दूसरे के गुण-दोष से दूसरे में गुण-दोष का आधान अर्थात् अन्य के गुण-दोष से अन्य के गुण-दोषत्व का बोध उल्लास का लक्षण मान्य है। उन्होंने भी उल्लास के उक्त चार भेद स्वीकार किये है।' स्पष्ट है कि उल्लास के जिस स्वरूप की कल्पना जयदेव के समय हुई, वही पीछे भी स्वीकृत हुई। अतः, उल्लास-धारणा में एकरूपता रही है।
अवज्ञा
अवज्ञा अलङ्कार उल्लास का विपरीतधर्मा है। उल्लास में एक के गुणदोष से अन्य के गुण-दोष का वर्णन होता है। इसके विपरीत जहाँ एक के गुण-दोष से अन्य के गुण-दोष का लाभ नहीं करना वर्णित हो, वहाँ अवज्ञा अलङ्कार माना जाता है। 'छोटा पात्र समुद्र में जाकर भी थोड़ा ही जल ले पाता है' ऐसे कथन में समुद्र की विशालता का क्षुद्र जलपात्र के द्वारा प्राप्त न किये जा सकने का वर्णन अवज्ञा का उदाहरण होगा।
अवज्ञा अलङ्कार की कल्पना जयदेव के पूर्व नहीं हुई थी। जयदेव एवं अप्पय्य दीक्षित ने अवज्ञा की परिभाषा में कहा है कि जहाँ एक के गुण-दोष से दूसरे के गुण-दोष के अलाभ का वर्णन हो, वहाँ अवज्ञा अलङ्कार होता है। पण्डितराज जगन्नाथ ने अवज्ञा की स्वतन्त्र परिभाषा नहीं देकर उल्लास को परिभाषित करने के उपरान्त कहा है कि उल्लास का विपर्यय अवज्ञा है । 3 स्पष्ट है कि जगन्नाथ की अवज्ञा-धारणा जयदेव तथा अप्पय्य दीक्षित की धारणा से अभिन्न है। इस प्रकार अवज्ञा की धारणा में एकरूपता ही रही है।
१. अन्यदीयगुणदोषप्रयुक्तमन्यस्य गुणदोषयोराधानमुल्लासः । तच्च गुणे गुणस्य दोषस्य वा दोषेण गुणस्य दोषस्य वेति चतुर्धा ।
-जगन्नाथ, रसगङ्गाधर, पृ० ८०३ २. ताभ्यां तौ यदि न स्यातामवज्ञालंकृतिस्तु सा।
-अप्पय्य दीक्षित, कुवलयानन्द, १३६ ३. तद्विपर्ययोऽवज्ञा । तस्योल्लासस्य विपर्ययोऽभावः .......।
-जगन्नाथ, रसगङ्गाधर, पृ० ८०५