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हिन्दी रीति-साहित्य में अलङ्कार-विषयक उद्भावनाएँ [ ३४७० गोविन्द
_ 'कर्णाभरण' में गोबिन्द ने अलङ्कारों के लक्षण-उदाहरण दिये हैं। उन्होंने 'कुवलयानन्द' की लक्षण-लक्ष्य शैली में एक ही दोहे में अलङ्कार-विशेष का लक्षण और उदाहरण देने का प्रयास किया था।' अधिकांश अलङ्कारों के लक्षण और उदाहरण एक ही दोहे में दिये गये हैं; पर सर्वत्र गोविन्द को इस प्रयास में सफलता नहीं मिली। अतः, कुछ अलङ्कारों के लक्षण और उदाहरण अलग-अलग दोहों में दिये गये हैं। सम आदि अलङ्कारों के लक्षण-उदाहरण इस दृष्टि से द्रष्टव्य हैं। अधिकांश में चन्द्रालोककार तथा कुवलयानन्दकार से प्रभावित होने पर भी गोविन्द ने अन्य आचार्यों की अलङ्कार-धारणा का भी प्रभाव ग्रहण किया है। श्लेष के प्रकृत-प्रकृत, प्रकृताप्रकृत तथा अप्रकृता--- प्रकृत-भेदों की कल्पना में प्राचीन आचार्यों की श्लेषोपमा-धारणा का प्रभाव स्पष्ट है।
रूपसाहि
रूपसाहि ने 'रूप-विलास' में विविध काव्याङ्गों का वर्णन करते हुए अलङ्कारों का भी स्वरूप-निरूपण किया है। इस ग्रन्थ के बारहवें विलास में अर्थालङ्कारों का निरूपण 'कुवलयानन्द', 'भाषाभूषण' आदि की पद्धति पर दोहों में ही लक्षण-उदाहरण देकर किया गया है। तेरहवें विलास में शब्दालङ्कार एवं चित्र का वर्णन किया गया है ।
रतन कवि
_ 'अलङ्कार-दर्पण' में रतन कवि ने एक ही छन्द में लक्षण-उदाहरण देने की शैली में अलङ्कार-निरूपण किया है। रतन पर 'कुवलयानन्द', 'भाषाभूषण' आदि का पुष्कल प्रभाव है । 'कान्ताभूषण' भी इन्हीं की रचना मानी गयी है । नायिका-भेद और अलङ्कार का एक साथ वर्णन इस कृति की विशेषता है।
१. अलङ्कार या में कहत लच्छन लच्छि समेत । निज मति के अनुसार तें समुझहिं बुद्धिनिकेत ॥
-गोविन्द, कण्ठाभरण, पृ० १.