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अलङ्कारों का पारस्परिक भेद [७५७ दोष के आविष्कार का) हेतु रहने पर फलाभाव दिखाया जाता है। यह मान्यता उचित नहीं । अतद्गुण और विशेषोक्ति में भी ऐसी समता के रहते हुए दोनों के विशिष्ट चमत्कार के आधार पर दोनों की स्वतन्त्र सत्ता स्वीकार की गयी है । अवज्ञा का विशिष्ट चमत्कार एक के गुण-दोष से अन्य में गुण-दोष के अविष्कार का अभाव दिखाने में है और विशेषोक्ति का कारण के रहते कार्योत्पत्ति का अभाव दिखाने में। अतः, दोनों में एक दूसरे से स्वतन्त्र सौन्दर्य है। उल्लास और तद्गुण
उल्लास और तद्गुण के प्रतियोगी अवज्ञा और अतद्गुण के भेद पर विचार किया जा चुका है। उल्लास में भी अन्य के गुण से अन्य में गुणाधान होता है और तद्गुण में भी अन्य के गुण का अन्य के द्वारा ग्रहण होता है; पर दोनों की प्रक्रिया अलग-अलग है। उल्लास में अन्य के गुण से वस्तुविशेष के अपने ही गुण का आविष्कार होता है; पर तद्गुण में विशेष वस्तु अपने गुण का त्याग कर अन्य वस्तु के उत्कृष्ट गुण को ग्रहण करती है । पण्डितराज जगन्नाथ ने एक उदाहरण से दोनों का भेद स्पष्ट किया है। जैसे हल्दी का अपना रंग ही लाल चूर्ण आदि के रंग के सम्पर्क से लाली ग्रहण कर लेता है, उसी प्रकार उल्लास में किसी वस्तु का अपना ही गुण अन्य वस्तु के गुण के सम्पर्क से विशेष रूप में आविष्कृत हो जाता है। तद्गुण में गुण-ग्रहण की प्रक्रिया इससे भिन्न होती है। जैसे जपा के लाल फूल की लाली से उज्ज्वल स्फटिक लाल हो जाता है वैसे ही किसी वस्तु का अपने गुण को त्याग कर अन्य के गुण को ग्रहण कर लेना तद्गुण है ।२ अन्य के गुण के अन्य में आधान की प्रक्रिया के उक्त भेद के आधार पर उल्लास और तद्गुण का भेद स्पष्ट है। लेश और व्याजस्तुति
लेश में गुण का दोष के रूप में तथा दोष का गुण के रूप में वर्णन किया जाता है । व्याजस्तुति का लेश से मुख्य भेद यह है कि व्याजस्तुति में निन्दा १. विशेषोक्त्यैवगतार्थत्वादवज्ञानालङ्कारान्तरमित्यपि वदन्ति ।
-जगन्नाथ, रसगङ्गाधर, पृ० ८०७ २. यद्यप्युल्लासेऽप्यन्यदीयगुणेनान्यस्य गुणाधानमस्ति तथापि तत्रान्यदीय
गुणप्रयुक्त गुणान्तरं चूर्णादिक्षारताप्रयुक्त हरिद्रादेः शोणत्वमिवाधीयते प्रकृते (तद्गुणे) तु जपाकुसुमलौहित्यं स्फटिक इवान्यदीयगुणएवान्योति ततोऽस्य भेदः ।-वही, पृ० ८१२-१३