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अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
का कथन स्तुतिमुखेन और स्तुति का कथन निन्दामुखेन होता है। लेश में स्तुतिमुखेन या निन्दामुखेन निन्दा-स्तुति का कथन नहीं होता, उसमें केवल गुण को अनिष्टसाधन बताकर दोष के रूप में और इसके विपरीत दोष को इष्टसाधन बताकर गुण के रूप में ग्रहण किया जाता है । पण्डितराज जगन्नाथ ने निन्दास्तुतिमुखेन विपरीतार्थ-प्रतिपादन को व्याजस्तुति का व्यवच्छेदक माना है।' दीपक और सहोक्ति
दीपक में भी अनेक पदार्थों का एक क्रिया से सम्बन्ध दिखाया जाता हैं और सहोक्ति में भी दो पदार्थों की क्रियाओं का समान पद से उल्लेख किया जाता है; पर दोनों में भेद यह है कि दीपक में क्रिया एक पद के साथ अन्वित होकर जब विश्रान्त हो लेती है तब दूसरे पद के साथ अन्वित होती है, जबकि सहोक्ति में दो वस्तुओं से सम्बद्ध क्रिया एक ही समय दोनों पदार्थों से अन्वित होकर दोनों का अर्थ-बोध कराती है। उद्भट ने इसीलिए सहोक्ति की परिभाषा में इस तथ्य पर बल दिया है कि उसमें एक ही साथ वस्तुद्वयसमाश्रित क्रियाएं एक ही पद से कथित होती हैं। विवृतिकार तिलक ने युगपत् या तुल्यकाल शब्द के उल्लेख की सार्थकता दीपक से सहोक्ति के विषय-विभाग में ही मानी है ।२ तात्पर्य यह कि दीपक में अनेक वस्तुओं की एक ही क्रिया का प्रयोग होता है; पर उसमें अर्थ-बोध की प्रक्रिया यह होती है कि पाठक एक-एक पद से उस क्रिया का अन्वय कर क्रम से प्रत्येक पद का अर्थ समझता है। पर, सहोक्ति में सहार्थ-वाचक पद से एक वस्तु को गौण और दूसरी वस्तु को प्रधान बनाकर एक ही समय समान क्रिया से दोनों का अन्वय होता है। निदर्शना और अतिशयोक्ति
'काव्यालङ्कारसारसङग्रह' में निदर्शना के एक उदाहरणको दृष्टि में रख कर यह प्रश्न उठाया गया है कि निदर्शना में भी दो वाक्यार्थों का पर्यवसान अभेद में होता है; अर्थात् जब दो वाक्यार्थों के सम्भव या असम्भव सम्बन्ध में परस्पर उपमानोपमेय-भाव की कल्पना कर ली जाती है तब वास्तविक भेद में भी अभेद स्वीकार किया जाता है, फिर ऐसी निदर्शना को भेद में अभेद प्रकल्पन
१. द्रष्टव्य-जगन्नाथ, रसगङ्गाधर, पृ० ८१०-११ २. न चात्र दीपकतेत्याह तुल्येति । तत्र हि एकविश्रान्तक्रियानुषङ्गे
णोपकारकसम्बन्धमेति । इह ( सहोक्त्यलङ्कारे ) तु युगपदुभयगतत्वेन प्रतिपाद्यते।-उद्भट, काव्यालङ्कारसारसं० विवृति, पृ० ४७-४८