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अलङ्कारों का पारस्परिक भेद
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रूप अतिशयोक्ति से स्वतन्त्र मानने में क्या युक्ति है ? विवृतिकार का समाधान यह है कि निदर्शना में दो वाक्यार्थों में एक ही गुण रहता है । अतः, उसमें एक ही गुण के अभेद की कल्पना की जाती है, जबकि भेद में अभेद-रूप अतिशयोक्ति में स्वरूपतः भिन्न वस्तुओं का अभेदाध्यवसान होता है । निदर्शना में दो वाक्यार्थों का गुण, जिसका अभेदाध्यवसान होता है, वस्तुतः अभिन्न ही रहता है; केवल अपने सम्बन्धी दो वाक्यार्थों के भेद से ही वह भिन्न जान पड़ता है । इस प्रकार निदर्शना में गुण का अभेदाध्यवसान अतिशयोक्ति के अभेदाध्यवसान से — स्वरूपतः भिन्न पदार्थों के अभेदाध्यवसान से - भिन्न प्रकृति का है । अतः, दोनों अलङ्कारों की सत्ता परस्पर स्वतन्त्र है ।' पण्डितराज जगन्नाथ ने अतिशयोक्ति से निदर्शना का भेद स्पष्ट करने के लिए निदर्शना के लक्षण में इस तथ्य पर बल दिया है कि निदर्शना में जिन दो अर्थों में औपम्यपर्यवसायी आथ अभेद दिखाया जाता है, उन दोनों का उपादान होता है । इस प्रकार अतिशयोक्ति से - जिसमें विषय का निगरणपूर्वक अध्यवसान दिखाया जाता है - निदर्शना का भेद स्पष्ट हो जाता है । २
प्रतिवस्तूपमा और तुल्ययोगिता
आचार्य रुय्यक के अनुसार इन दो अलङ्कारों में मुख्य भेद यह है कि प्रतिवस्तूपमा में साधारण धर्म का वस्तुप्रतिवस्तुभाव से असकृत् ( अनेक बार ) उल्लेख होता है; पर तुल्ययोगिता में सकृत् निर्देश | 3
१. ननु भिन्नयोविशोभतयोरैक्यमध्यवसितमिति भेदे अभेद इत्येवमात्मकेयमतिशयोक्तिः । विशोभिताख्यो गुण एकः । न तु स्वरूपभिन्नः । सम्बन्धिभेदात् भिद्यते । स्वरूपभिन्नयोरैक्येऽतिशयोक्तिः ।
—उद्भट काव्यालङ्कार सारसङग्रह, विवृति, पृ० ४५ २. उपात्तयोरार्थाभेद औपम्यपर्यवसायी निदर्शना । अतिशयोक्त्यादीनां वारणायोपात्तयोरिति ।
—जगन्नाथ, रसगङ्गाधर, पृ० ५३६, ३. वाक्यार्थगतत्वेन सामान्यस्यवाक्यद्वये पृथङ निर्देशे प्रतिवस्तूपमा । ....इवाद्यनुपादाने सकृन्निर्देशे दीपकतुल्ययोगिते ।
— रुय्यक, अलङ्कारसू०, २५ तथा अलङ्कारसर्वस्व, पृ० ७७