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अलङ्कार-धारणा का विकास
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के नाम-रूप प्राचीन ही हैं। यमक और चित्र अलङ्कारों का विवेचन भी पूर्ववर्ती आचार्यों के मतानुसार ही किया गया है। जयदेव ने दो नवीन शब्दालङ्कारों का निरूपण किया है। वे हैं :- स्फुटानुप्रास और अर्थानुप्रास । स्फुटानुप्रास
चन्द्रालोककार ने स्फुटानुप्रास की परिभाषा में कहा है कि यदि श्लोक के आधे भाग में या उसके भी आधे अर्थात् पाद में किसी वर्ण की नियत आवृत्ति हो तो उसे स्फुटानुप्रास कहते हैं।' यह स्फुटानुप्रास-धारणा आचार्य दण्डी की 'धारणा से भिन्न नहीं। दण्डी ने अनुप्रास अलङ्कार का उल्लेख माधुर्य गुण के प्रसङ्ग में किया था, अलङ्कार के प्रसङ्ग में नहीं। दण्डी ने भी अनुप्रास के 'पदगत तथा पादगत भेद स्वीकार किया था। स्फुटानुप्रास की धारणा उससे मिलती-जुलती ही है।
अर्थानुप्रास
प्रस्तुत अलङ्कार जयदेव की नवीन कल्पना है। उनकी मान्यता है कि जहां उपमेय और उपमान-वाक्यों में नियत वर्णावृत्ति हो वहाँ अर्थानुप्रास अलङ्कार होता है ।२ सादृश्यमूलक रूपक आदि में भी उपमानोपमेय वाक्यों में नियत वर्णों की आवृत्ति की कल्पना की जा सकती है। इस प्रकार उपमा आदि अर्थालङ्कारों के साथ वर्णावृत्ति-रूप अनुप्रास की धारणा को मिला कर मर्थानुप्रास नामक नवीन अलङ्कार की कल्पना की गयी है ।
इस विवेचन से स्पष्ट है कि जयदेव के 'चन्द्रालोक' में अधिकांशतः पूर्ववर्ती आचार्यों की शब्दालङ्कार-धारणा को ही स्वीकार किया गया है। स्फुटानुप्रास का नाम-मात्र नवीन है। उसका स्वरूप दण्डी के अनुप्रास के स्वरूप से अभिन्न है। एक नवीन शब्दालङ्कार 'अर्थानुप्रास' की उद्भावना का श्रेय जयदेव को है। इसमें नियत वर्णावृत्ति का विचार होने से यह शब्दालङ्कार है, पर उपमान तथा उपमेय-रूप अर्थ का विचार होने से अर्थालङ्कार । इसीलिए इसकी संज्ञा अर्थानुप्रास है, पर इसकी गणना शब्दालङ्कार-वर्ग में की गयी है।
१. श्लोकस्याध तदध वा वर्णावृत्तिर्यदि ध्र वा ॥
तदा मता मतिमतां स्फुटानुप्रासता सताम् ।।-जयदेव, चन्द्रालोक, ५,५ २. उपमेयोपमानादावर्थानुप्रास इष्यते । वही, ५, ६.