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२५६ ] अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण __ अर्थालङ्कारों के स्वरूप-निरूपण में जयदेव ने आचार्य भरत से लेकर रुय्यक तक की कृतियों में व्यक्त तत्तदलङ्कार-विषयक मान्यताओं का उपयोग किया है। प्राचीन आचार्यों के जिन अलङ्कारों को जयदेव ने स्वीकार किया है, उनके लक्षण भी प्रायः उन्होंने पूर्वाचार्यों के मतानुसार ही दिये हैं। प्राचीन अभिधान वाले अर्थालङ्कार के रूप-विधान में चन्द्रालोककार ने नवीन स्थापना का प्रयास बहुत कम किया है। उन्होंने किसी एक पूर्ववर्ती आचार्य के अलङ्कारसिद्धान्त का अनुगमन नहीं कर विभिन्न अलङ्कारों की स्वरूप-मीमांसा में अलगअलग आलङ्कारिकों के मत को स्वीकार किया है। इस दृष्टि से हम 'चन्द्रालोक' में प्रतिपादित प्राचीन अलङ्कारों के स्वरूप का परीक्षण नीचे करेंगे।
प्राचीन आचार्यों में सामान्य परिभाषा में अधिकाधिक तथ्य-प्रकाशन की प्रवृत्ति अधिक थी। धीरे-धीरे आचार्यों का झुकाव विशेषीकरण की ओर बढ़ा। एक सामान्य तथा व्यापक परिभाषा का ही तत्त्व लेकर अनेक विशिष्ट तथा सीमित परिभाषाएँ बनायी जाने लगी। अलङ्कार-विवेचन के क्षेत्र में भी यह प्रवृत्ति स्पष्ट है। आचार्यों के बुद्धि-विलास से ऐसे अनेक अलङ्कार आविभूत हुए जिनके स्वरूप में बड़े आयास से कुछ सूक्ष्म भेद दिखाया जा सकता है, और उस सूक्ष्म भेद के होने पर भी उन सब के स्वरूप तक प्राचीन आचार्य के किसी एक अलङ्कार-लक्षण की व्याप्ति पायी जा सकती है। 'चन्द्रालोक' में मम्मट आदि आचार्यों के किसी व्यापक अलङ्कार-लक्षण के आधार पर जिन नवीन अलङ्कारों की कल्पना की गयी है उनका परीक्षण जयदेव की अलङ्कारविषयक नूतन उद्भावना के सन्दर्भ में किया जायगा ।
अलङ्कार के क्षेत्र में जयदेव की कुछ नवीन उद्भावनाओं का भी अवमूल्यन नहीं किया जा सकता। प्रस्तुत सन्दर्भ में जयदेव कृत 'चन्द्रालोक' में निरूपित अर्थालङ्कारों का प्राचीन आचार्यों की रचनाओं में विवेचित अलङ्कारों से स्वरूपगत समता-विषमता की दृष्टि से अध्ययन तथा 'चन्द्रालोक' में कल्पित नवीन अलङ्कारों का स्रोत-सन्धान वाञ्छनीय है।
उपमा
उपमा अलङ्कार के सामान्य स्वभाव का विवेचन जयदेव ने प्राचीन आचार्यों के मतानुसार ही किया है। इसी सन्दर्भ में उन्होंने अनन्वय तथा उपमेयोपमा का स्वरूप-निरूपण किया है, जी प्राचीनों की पद्धति पर ही किया गया है। इस प्रसङ्ग में उन्होंने एक प्रतीपोपमा अलङ्कार की कल्पना की है।