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अलङ्कार-धारणा का विकास
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इस कल्पना के आधार का परीक्षण अपेक्षित है । जयदेव ने प्रतीपोपमा से पृथक् प्रतीप अलङ्कार का भी विवेचन किया है । उक्त दो अलङ्कारों के परस्पर स्वतन्त्र अस्तित्व की स्वीकृति का औचित्य विचारणीय है । प्रतीपोपमा के लक्षण में ' कहा गया है कि जहाँ प्रसिद्ध उपमान की कल्पना उपमेय के रूप में की जाती हो वहाँ प्रतीपोपमा नामक अलङ्कार होता है ।' स्पष्ट है कि मम्मट, रुय्यक आदि के प्रतीप - लक्षण से प्रतीपोपमा का उक्त लक्षण अभिन्न है । फिर, जयदेव के प्रतीप अलङ्कार की स्वरूप - कल्पना का क्या आधार है ? उन्होंने प्रतीप की परिभाषा इस प्रकार दी है : - उपमेय से उपमान की हीनता के वर्णन में प्रतीप नामक अलङ्कार होता है । उपमान के प्रति साधारणतः उपमेय की अपेक्षा आधिक्य की भावना रहा करती है । उपमेय के उत्कर्ष की व्यञ्जना के लिए कभी-कभी उसकी अपेक्षा उपमान को हेय बताया जाता है । ऐसे स्थल में जयदेव ने प्रतीप का सद्भाव माना है । स्पष्टतः, प्रतीप का यह लक्षण भी मम्मट आदि के प्रतीप-लक्षण के ही समान है । मम्मट ने प्रतीप के दो रूप माने थे – (क) उपमान का आक्षेप ( निन्दा या निषेध ) तथा (ख) अनादर के लिए उपमान का उपमेयत्व - प्रकल्पन । 3 मम्मट के प्रतीप के प्रथम भेद के स्वरूप के आधार पर जयदेव ने प्रतीप की परिभाषा दी तथा द्वितीय भेद की प्रकृति के आधार पर प्रतीपोपमा को परिभाषित किया । वस्तुतः प्रतीपोपमा और प्रतीप के पृथक्-पृथक् अस्तित्व की कल्पना आवश्यक नहीं । प्रतीपोपमा का नाम मात्र नवीन है, स्वरूप प्राचीन आचार्यों के प्रतीप से अभिन्न । जयदेव ने ललितोपमा नामक अलङ्कार की कल्पना कर उसके लक्षण में कहा है कि यदि उपमान लीला आदि पदों से युक्त हो तो उसे ललितोपमा कहेंगे । लीला के साथ 'आदि' से उन्हें कौन-कौन से पद अभिप्रेत यह स्पष्ट नहीं है । ललितोपमा के उदाहरण को दृष्टि में रखकर 'चन्द्रालोक'
१. विख्यातस्योपमानस्य यत्र स्यादुपमेयता । (इन्दुर्मुखमिवेत्यादौ स्यात् प्रतीपोपमा तदा ॥
-जयदेव, चन्द्रालोक, ५, १४
२. प्रतीपमुपमानस्य हीनत्वमुपमेयतः । - वही, ५, १०० ३. आक्षेप उपमानस्य प्रतीपमुपमेयता ।
तत्रव यदि वा कल्प्या तिरस्कारनिबन्धनम् ॥
- मम्मट, काव्यप्रकाश, १०, २०१ ४. उपमाने तु लीलादिपदाढ्य ललितोपमा । - जयदेव, चन्द्रालोक, ५, १५
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