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अलङ्कार-धारणा का विकास [ १२५. आवश्यक थी। रूपक के सन्दर्भ में श्लेष का विवेचन करते हुए उन्होंने इसमें भी प्रस्तुत-अप्रस्तुत के अभेदारोप का तत्त्व मिला दिया। ' उद्भट ने यह सङ्कत किया था कि श्लिष्ट अलङ्कार में उपमा आदि किसी अन्य अलङ्कार की छाया देखी जा सकती है ।२ वस्तुतः श्लेष से अनुप्राणित अन्य अलङ्कारों के भूरिशः उदाहरण काव्य में प्राप्त होते हैं। किन्तु, वामन के श्लेष का स्वरूप भामह आदि पूर्ववर्ती तथा उद्भट-जैसे समसामयिक आचार्यों के श्लेष से भिन्न है। उसमें श्लेष के साथ रूपक का तत्त्व मिश्रित है।
उत्प्रेक्षा __ वामन की उत्प्रेक्षा-धारणा पूर्ववर्ती आचार्यों की धारणा से अभिन्न है । अतिशयोक्ति
अतिशयोक्ति अलङ्कार-विषयक वामन की मान्यता भी भामह आदि आचार्यों की तद्विषयक-धारणा से भिन्न नहीं।
सन्देह
'काव्यालङ्कार-सूत्र' में सन्देह अलङ्कार की धारणा प्राचीन आचार्यों की ससन्देह-धारणा के समान ही है। भामह और उद्भट ने जहाँ इस अलङ्कार को ससन्देह कहा था वहाँ वामन ने उसे सन्देह संज्ञा से अभिहित किया। ससन्देह और सन्देह के अर्थ में तत्त्व-गत कोई भिन्नता नहीं और न भामह आदि के ससन्देह तथा वामन के सन्देह अलङ्कार में कोई स्वरूपगत भेद है।५
१. स धर्मेषु तन्त्रप्रयोगे श्लेषः । -वामन, काव्यालं० सू० ४,३, ७ तथा उपमानोपमेयस्य धर्मेषु गुणक्रिया शब्दरूपेषु स तत्त्वारोपः।
-वही, वृत्ति, पृ० २३२, हिन्दी, काव्यालं० सू० २. द्रष्टव्य-उद्भट, काव्यालं० सार सं० ४, २३-२४ ३. द्रष्टव्य-वामन, काव्यालं० सू० ४, ३, ६ तथा
भामह, काव्याल० २, ६१ ४. द्रष्टव्य-काव्यालं० सू० ४, ३, १० तथा भामह, काव्यालं० २,८१ ५. द्रष्टव्य-काव्यालं० सू० ४, ३, ११ तथा भामह, काव्यालं० ३, ४३