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१२४ ] अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण की सत्ता मानी जायगी। उक्त दो अलङ्कारों में भेद सिद्ध करने का यह प्रयास उलझन से बचने के लिए किया गया-सा जान पड़ता है। एक अलङ्कार के स्वरूप-निरूपण में भामह के तथा दूसरे अलङ्कार के लक्षण-निर्धारण में दण्डी के मत को स्वीकार करने के कारण वामन इस उलझन में पड़ गये । प्रतिवस्तूपमा अलङ्कार से समासोक्ति तथा अप्रस्तुतप्रशंसा के साम्य-वैषम्यनिरूपण के आग्रह के कारण भी वामन इस कठिनाई में पड़े होंगे। वे प्रतिवस्तूपमा, समासोक्ति और अप्रस्तुतप्रशंसा में केवल इतना भेद मानते हैं कि प्रतिवस्तूपमा में उपमेय उक्त, समासोक्ति में अनुक्त तथा अप्रस्तुतप्रशंसा में किञ्चित् उक्त होता है। समान वस्तु का ( उपमान का ) न्यास तीनों में समान रूप से होता है। अपह्न ति
वामन की अपह्न ति भामह आदि पूर्ववर्ती आचार्यों की अपह्न ति से : अभिन्न है।
रूपक
रूपक के स्वरूप के सम्बन्ध में वामन ने भामह आदि आचार्यों की मान्यता को ही स्वीकार किया है। भामह की तरह वे भी प्रस्तुत तथा अप्रस्तुत में गुण के साम्य के कारण प्रस्तुत में अप्रस्तुत के अभेद का आरोप रूपक अलङ्कार का लक्षण मानते हैं । २
श्लेष
श्लेष की परिभाषा में वामन ने पूर्ववर्ती आचार्यों के श्लेष एवं रूपक के तत्त्वों को मिला दिया है। वामन के पूर्व श्लेष में अनेकार्थ के वाचक एक-रूप शब्द का प्रयोग-मात्र अपेक्षित माना गया था। पूर्ववर्ती आचार्यों ने न तो उसमें उपमानोपमेय-भाव की कल्पना की थी, और न उपमेय पर उपमान के तत्त्वारोप की ही। वामन सभी अलङ्कारों को उपमा-प्रपञ्च सिद्ध करना चाहते हैं । अतः उनके लिए श्लेष में भी उपमानोपमेय के सद्भाव की कल्पना
१. द्रष्टव्य-वामन, काव्यालं० सू० ४, ३, ५ तथा
. भामह, काव्यालं० ३, २१ २. द्रष्टव्य-काव्यालं० सू० ४, ३, ६ तथा भामह, काव्यालं० २, २१