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________________ ४४८ ] अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण मानने वाले मत का खण्डन कर कुन्तक ने स्वमत से दीपक को परिभाषित करते हुए कहा कि इस अलङ्कार में 'औचित्य के अनुरूप सुन्दर एवं सहृदयहृदयाह्लादक पदार्थों के प्रतीयमान धर्म का दीपन होता है।' कुन्तक ने नवीन रूप से दीपक को परिभाषित करने का आयास किया है; पर वे वस्तुतः, दीपक के सम्बन्ध में किसी नवीन तथ्य की स्थापना नहीं कर सके हैं। क्रिया के अतिरिक्त जाति, गुण, द्रव्य के वाचक शब्दों का दीपकत्व दण्डी आदि स्वीकार कर चुके थे। रुद्रट ने भी कारक-दीपक का अस्तित्व स्वीकार किया था। भामह ने कहीं भी स्पष्टतः केवल क्रिया-पद के दीपकत्व की धारणा व्यक्त नही की थी। यह एक संयोग भी हो सकता है कि उनके तीन उदाहरणों में क्रिया से ही अर्थ-दीपन हुआ है। कुन्तक ने दीपक की परिभाषा में उचित, सुन्दर तथा तद्विदाह्लादकारक विशेषणों का जो प्रयोग किया है, उसका औचित्य भी विचारणीय है। औचित्य तो सभी अलङ्कारों का प्राण ही है। उसके अभाव में अलङ्कारत्व ही सम्भव नहीं। सुन्दर होने तथा सहृदय के लिए माह्लादकारी होने की धारणा भी अलङ्कार-मात्र के स्वरूप की कल्पना के मूल में निहित है। अतः, उक्त विशेषणों का अलङ्कार-विशेष के लक्षण में प्रयोग आवश्यक नहीं। अशक्त अर्थात् प्रतीयमान धर्म के द्योतन की धारणा कुन्तक ने उद्भट से ली है। स्पष्ट है कि कुन्तक ने पूर्वाचार्यों की दीपकधारणा को ही कुछ परिष्कार के साथ प्रस्तुत किया है। आचार्य मम्मट ने रुद्रट की तरह क्रिया-दीपक और कारक-दीपक; इन दो दीपक-प्रकारों का अस्तित्व स्वीकार किया है। उन्होंने पूर्ववर्ती आचार्यों के मत का अनुसरण करते हुए प्रस्तुत और अप्रस्तुत धर्मियों के गुण, क्रिया आदि. धर्म का एक ही बार उपादान, दीपक का लक्षण माना। बहुत क्रियाओं के होने पर कर्ता आदि छह कारकों में से किसी एक का एक ही बार उपादान, कारकदीपक का लक्षण माना गया। स्पष्टतः, मम्मट पर रुद्रट की दीपक-धारणा का प्रभूत प्रभाव है; पर, जहाँ रुद्रट ने दीपक को वास्तव-वर्ग का अलङ्कार माना था, वहां मम्मट ने वामन आदि की तरह उसमें उपमानोपमेय-सम्बन्ध १. औचित्यावहमम्लानं तद्विदा ह्लादकारणम् । अशक्तं धर्ममर्थानां दीपयद् वस्तु दीपकम् ॥-कुन्तक,वक्रोक्तिजी० ३,१७ २. सकृवृत्तिस्तु धर्मस्य प्रकृताप्रकृतात्मनाम् । पेष क्रियासु बहीषु कारकस्येति दीपकम् ॥ -मम्मट, काव्याप्र० १०,१५६
SR No.023467
Book TitleAlankar Dharna Vikas aur Vishleshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhakant Mishra
PublisherBihar Hindi Granth Academy
Publication Year1972
Total Pages856
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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