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६६४ ] अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण पर अभेदप्रधान रूपक आदि से तथा भेदप्रधान प्रतिवस्तूपमा आदि से भेदनिरूपण मान्य है।' निष्कर्ष यह कि उपमा और रूपक; दोनों में समान रूप से प्रस्तुत और अप्रस्तुत के बीच सादृश्य-निरूपण से प्रस्तुत का उपस्कार होता है। दोनों में भेद यह है कि
(क) उपमा में दो भिन्न वस्तुओं का सादृश्य-निरूपण होने के कारण दोनों के भेद और अभेद की तुल्यरूप से प्रधानता रहती है; पर रूपक में प्रस्तुत पर अप्रस्तुत का अभेदारोप होने के कारण अभेद की प्रधानता रहती है।
(ख) उपमा मुख्यतः अभिधा शक्ति पर आश्रित है; पर रूपक गौणीवृत्ति अर्थात् लक्षणा पर।
(ग) समासोपमा और समासरूपक में प्रयोग की समता होने पर अलङ्कारविशेष का निर्णय इस आधार पर होता है कि उपमेय की प्रधानता रहने पर उपमा और उपमान की प्रधानता रहने पर रूपक होता है। उपमित समास में उपमेय की प्रधानता रहने से उपमा तथा मयूरव्यंसकादि समास में उपमान की प्रधानता रहने से रूपक अलङ्कार होता है ।
(घ) सादृश्य के वाच्य होने पर उपमा और व्यङग्य होने पर रूपक मानकर भी दोनों का भेद-निरूपण हुआ है; पर व्यङ ग्या उपमा के उदाहरण देकर जगन्नाथ ने इस विभाजक आधार को अशक्त सिद्ध कर दिया है । उपमा और उत्प्रेक्षा
आचार्थ दण्डी ने सर्वप्रथम उत्प्रेक्षा और उपमा के पारस्परिक भेद का विशद निरूपण किया। इसकी आवश्यकता उन्हें इसलिए जान पड़ी होगी कि कुछ शब्द समान रूप से उपमा तथा उत्प्रेक्षा; दोनों के वाचक हैं। मन्ये, शङ्क, मानो आदि तो केवल उत्प्रेक्षा के वाचक हैं; किन्तु, इव, सा, आदि सादृश्यवाचक शब्द उत्प्रेक्षा और उपमा दोनों के वाचक हैं । क्रिया के साथ इव आदि सादृश्यवाचक पदों का प्रयोग सम्भावना का सूचक होता है। अतः, क्रिया-पद के साथ इव आदि का प्रयोग उत्प्रेक्षा का तथा क्रियातिरिक्त संज्ञा विशेषण आदि पदों के साथ इव आदि सादृश्यवाचक पदों का प्रयोग उपमा का स्वरूप-विधान करता है।
१. एवमभेप्रधानेष्वपि रूपकापह्नतिपरिणामभ्रान्तिमदुल्लेखादिषु........
नास्त्युपमालङ कृतित्वम् । —जगन्नाथ, रसगङ्गाधर, पृ० २४८-४६ २. वही, पृ० २८३ ३. दण्डी, काव्यादर्श, २, २२६-३४