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अलङ्कारों का पारस्परिक भेद
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उपमा में उपमान सिद्ध तथा उत्प्रेक्षा में उपमान असिद्ध होता है । सिद्ध होने का तात्पर्य है उसका लिङ्ग, संख्या और कारक से युक्त होना । जो पद लिङ्ग, संख्या तथा कारक से अन्वित नहीं हो, उसका अर्थ साध्य माना जाता है । अतः क्रिया सार्वत्रिक रूप से साध्य मानी गयी है । क्रिया में आकांक्षा अन्तर्निहित (अपूर्ण) रहती है । अतः वह पदार्थ की साध्यावस्था का बोध कराती है । 'वाक्यपदीय' में यह मान्यता प्रकट की गयी है कि क्रिया सिद्ध या असिद्ध वस्तु का साध्यरूप में अभिधान करती है ।२ क्रिया के साध्य होने के कारण उसके साथ आदि का प्रयोग कर उपमा अलङ्कार का विधान नहीं हो सकता । वैसे स्थल में उत्प्रेक्षा की ही योजना होगी, चूँकि साध्य क्रिया के साथ प्रयुक्त इव आदि पद सम्भावना - मात्र के वाचक होंगे । इसी तथ्य को ध्यान में रखकर महाभाष्यकार ने कहा था कि तिङन्त अर्थात् क्रियापद के अर्थ का उपमान होना ( सिद्ध उपमान होना) सम्भव नहीं । 3 आचार्य कैयट ने उक्त कथन की व्याख्या करते हुए कहा है कि क्रिया साध्य स्वभाव की होती है । उसका स्वरूप अनिष्पन्न रहता है । उपमान सिद्ध पदार्थ ही हो सकता है । क्रिया-पद का अर्थ साध्य होने से वह उपमान नहीं हो सकता । ४
विद्या चक्रवर्ती का मत है कि उपमा में उपमान लोक - प्रसिद्ध या तात्त्विक होता है और उत्प्रेक्षा में कविकल्पित तथा लोक में असिद्ध । इस आधार पर उपमा और उत्प्रेक्षा का भेद-निरूपण करने में दो प्रकार की आपत्तियाँ उठायी जा सकती हैं । एक तो यह कि उपमा में भी कविकल्पित उपमान की योजना हो सकती है । उपमा का कल्पितोपमा भेद लोक में असिद्ध कवि - कल्पना से प्रसूत उपमान पर ही आधृत है । दूसरे, लोक - सिद्ध उपमान से
१. यावत् सिद्धमसिद्ध वा साध्यत्वेनाभिधीयते । आश्रितक्रमरूपत्वात् सा क्रियेत्यभिधीयते ।
— भर्तृहरि, वाक्यपदीय, ३, ८, १
२. न वै तिङन्तेनोपमानमस्ति ।
- पतञ्जलि, महाभाष्य, पाणिनि सूत्र, ३, १, ७ ३. उक्तञ्चाभियुक्त :- सिद्धमेव समानार्थमुपमानं विधीयते । तिङन्तार्थस्तु साध्यत्वादुपमानं न जायते ।
४. ''''उपमानांशश्चेल्लोकतः सिद्धस्तदोपमैव द्वयोस्सिद्धत्वादिवशब्दः साधर्म्यद्योतकः । यदा तु कविकल्पितः तदोत्प्रेक्षैव ।
- अलङ्कारसर्वस्व पर विद्याचक्रवर्ती की संजीवनी टीका पृ० ७२