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________________ अलङ्कार-धारणा का विकास [७५. समाधानरूपक:-दण्डी का यह नवीन रूपक-भेद है। इसके स्वरूप- - सङ्घटन में भरत के उपपत्ति लक्षण से तत्त्व ग्रहण किया गया है। इसमें किसी आरोप्यमान के विरुद्ध कार्य का वर्णन करते हुए उसके हेतु का उल्लेख कर सम्भावित शङ्का का वक्ता स्वयं समाधान कर देता है।' उपपत्ति लक्षण की परिभाषा में भरत ने कहा है कि इसमें प्राप्त दोष का पुनः शमन किया जाता है ।२ इस लक्षण-धारणा से रूपक-धारणा को मिला कर उक्त रूपक-भेद की कल्पना की गयी है। रूपकरूपक:-एक रूपक के आधार पर पुनः रूपक की कल्पना रूपकरूपक है। इसमें प्रस्तुत पर अप्रस्तुत का आरोप कर एक रूपक सम्पन्न होता है। पुनः उस सम्पूर्ण पदार्थ पर अन्य वस्तु का आरोप होता है। यह रूपकमूलक रूपक है। तत्त्वापह्नवरूपक:-तत्त्वापह्नव रूपक की कल्पना का आधार अपह्न ति अलङ्कार एवं रूपक की समन्वित धारणा है। परवर्ती आचार्यों ने इसे अपह्न ति में ही अन्तभूत मान लिया है। स्पष्ट है कि दण्डी की रूपक-धारणा पूर्ववर्ती आचार्यों की तद्विषयक धारणा से तत्त्वतः अभिन्न है। उपमा, रूपक, व्यतिरेक, अपह्न ति आदि अलङ्कारों से अनुप्राणित रूपक को उपमारूपक, रूपकरूपक, व्यतिरेकरूपक, तत्त्वापह्नवरूपक आदि व्यपदेश से रूपक के विभिन्न भेद मान लिया गया है। इन भेदों की पृथक् कल्पना आवश्यक नहीं जान पड़ती। एक अलङ्कार से अनुप्राणित दूसरे अलङ्कार एकत्र रह सकते हैं। सकलरूपक एवं अवयवरूपक पूर्ववर्ती आचार्य भामह के क्रमशः समस्तवस्तुविषय एवं एकदेशविवर्ति रूपकभेदों से अभिन्न हैं। अवयवीरूपक, विषमरूपक आदि की कल्पना में कुछ . मौलिकता अवश्य है। समाधानरूपक का स्वरूप उपपत्ति लक्षण के आधार पर कल्पित है। दण्डी ने रूपक के और भी भेदोपभेदों की सम्भावना स्वीकार की है। १. द्रष्टव्य-दण्डी, काव्याद०, २, ६२ २. प्राप्तानां यत्र दोषाणां क्रियते शमनं पुनः । सा ज्ञेया ह युपपत्तिस्तु लक्षणं नाटकाश्रयम् ।। -भरत, ना० शा० १६, ३५..
SR No.023467
Book TitleAlankar Dharna Vikas aur Vishleshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhakant Mishra
PublisherBihar Hindi Granth Academy
Publication Year1972
Total Pages856
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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