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________________ ७४ ] अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण अवयविरूपकः—यह दण्डी का नवीन रूपक-प्रकार है। इसमें केवल अवयवी पर आरोप होता है, अवयव पर नहीं। अतः परवर्ती आचार्यों ने इसे निरङ्गरूपक कहा है। विषमरूपकः–जहाँ अङ्गी पर आरोप हो तथा कुछ अङ्गों पर आरोप का सद्भाव एवं अन्य अङ्गों पर उसका अभाव हो वहाँ 'विषम' नामक रूपक-भेद माना गया है। यह रूपक-भेद दण्डी की नवीन कल्पना है। सविशेषणरूपक:-यह दण्डी की स्वतन्त्र उद्भावना है। विशेषण-युक्त अप्रस्तुत का प्रस्तुत पर अभेदारोप सविशेषणरूपक माना गया है। हेमचन्द्र के अनुसार भरत ने उदारता-गुण की परिभाषा में अनेकार्थ विशेषण वाले पदों के प्रयोग पर बल दिया है। सम्भवतः दण्डी ने विशेषण-प्रयोग की धारणा उक्त गुण-लक्षण से ली और रूपक-अलङ्कार की अभेदारोप-धारणा के साथ उसे मिला कर रूपक के उक्त भेद की कल्पना कर ली। विरुद्धरूपक:-भामह की विरोधालङ्कार-धारणा से रूपक-धारणा को मिला कर प्रस्तुत रूपक-प्रकार की कल्पना कर ली गयी है। हेतुरूपक:-दण्डो की हेतूपमा के स्रोत का अन्वेषण करते हुए हम हेतु लक्षण से हेतु-धारणा का आविर्भाव सिद्ध कर चुके हैं। उसी हेतु से रूपकधारणा का संयोग कर दण्डी ने 'हेतुरूपक' नामक रूपक-भेद की सृष्टि की है। श्लिष्टरूपक:-इसमें भामह के श्लिष्ट अलङ्कार तथा रूपक के तत्त्वों का मिश्रण है। उपमारूपक:-भामह के उपमारूपक अलङ्कार से प्रस्तुत उपमाभेद अभिन्न है। भामह ने उपमारूपक को स्वतन्त्र अलङ्कार माना था, किन्तु दण्डी ने उसे रूपक का ही एक प्रकार स्वीकार किया है। यह रूपक उपमा से अनुप्राणित होता है। इसे स्वतन्त्र अलङ्कार मानने की अपेक्षा रूपक का अङ्ग मानना ही अधिक युक्ति-सङ्गत जान पड़ता है। व्यतिरेकरूपक:-यह व्यतिरेकमूलक रूपक है। इसके स्वरूप का निर्माण व्यतिरेक तथा रूपक के तत्त्वों के योग से हुआ है। आक्षेपरूपक:-रूपक के प्रस्तुत भेद के सृजन में भामह के आक्षेप तथा रूपक अलङ्कारों के विधायक तत्त्वों ने योग दिया है । यह आक्षेपपूर्वक रूपक है। १. रूपणादङ्गिनोङ्गानां रूपणारूपणाश्रयात् । रूपकं विषमं नाम ललितं जायते यथा ॥-दण्डी, काव्याद० २, ७६.
SR No.023467
Book TitleAlankar Dharna Vikas aur Vishleshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhakant Mishra
PublisherBihar Hindi Granth Academy
Publication Year1972
Total Pages856
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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