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________________ अलङ्कारों का स्वरूप-विकास मालागत चमत्कार का आधिक्य मान्य है। जगन्नाथ दीपक को सादृश्यगर्भ मानते हैं । मालादीपक में सादृश्यमूलकता आवश्यक नहीं। अतः, वे इसे दीपक का भेद मानने के पक्ष में नहीं हैं। यह जगन्नाथ का अपना दृष्टिकोण है। हम देख चुके हैं कि दीपक में सभी आचार्य सादृश्यमूलकता आवश्यक नहीं मानते। अतः, मालादीपक को दीपक-भेद मानने में कोई अनुपपत्ति नहीं। वस्तुतः, मालादीपक को दीपक और एकावली से स्वतन्त्र अलङ्कार नहीं माना जाना चाहिए । यह दोनों का समन्वित रूप है । हेतु, सूक्ष्म और लेश हेतु, सूक्ष्म तथा लेश पृथक्-पृथक् स्वरूप वाले परस्पर स्वतन्त्र अलङ्कार हैं, फिर भी इनके अलङ्कारत्व के विधि-निषेध का प्रतिपादन कुछ आचार्यों ने एक साथ किया है। अतः, इन तीनों के सम्बन्ध में आचार्यों की धारणा के विकास-क्रम का एकत्र अध्ययन अपेक्षित होगा। भामह ने हेतु, सूक्ष्म तथा लेश के अलङ्कारत्व का निषेध किया है। उनकी युक्ति है कि इनमें वक्रोक्ति का अभाव है और वक्रोक्ति के बिना काव्य या काव्यालङ्कार की कल्पना ही नहीं की जा सकती। वक्रता के अभाव में उक्ति केवल वार्ता हो सकती है, काव्य नहीं। भामह के इस निषेध-प्रयत्न से यह प्रमाणित है कि उनके पूर्व कुछ आचार्य हेतु, सूक्ष्म और लेश को काव्य के अलङ्कार मान चुके थे। इसीलिए भामह को उस मत का खण्डन आवश्यक जान पड़ा होगा। भामह ने हेतु, सूक्ष्म तथा लेश को परिभाषित करना भी आवश्यक नहीं समझा । भामह के उत्तरवर्ती आचार्य दण्डी ने हेतु, सूक्ष्म और लेश को न केवल काव्य के अलङ्कार के रूप में स्वीकार किया, अपितु उन्हें वाणी के उत्तम भूषण भी कहा। एक आचार्य जिसे अलङ्कार भी न माने उसे दूसरा १. एवं च दीपकालंकारप्रकरणे प्राचीनरस्य लक्षणाद्दीपकविशेषोऽयमिति न भ्रमितव्यं, तस्य सादृश्यगर्भतायाः सकलालङ्कारिकसिद्धान्तात् । -वही, पृ० ७३६ २. हेतुश्च सूक्ष्मो लेशोऽथ नालङ्कारतया मतः । . समुदायाऽभिधानस्य वक्रोक्त्यनभिधानतः ॥ -भामह, काव्यालङ्कार, २,८६ ३. हेतुश्च सूक्ष्मलेशौ च वाचामुत्तमभूषणम् ।। -दण्डी, काव्यादर्श, २,२३५
SR No.023467
Book TitleAlankar Dharna Vikas aur Vishleshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhakant Mishra
PublisherBihar Hindi Granth Academy
Publication Year1972
Total Pages856
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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