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अलङ्कार-धारणा का विकास
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आधिक्य वर्णित होता है । इसके विपरीत अल्प में सूक्ष्म आधेय से भी आधार की सूक्ष्मता का वर्णन होता है ।
मिथ्याध्यवसिति
मिथ्याध्यवसिति की अलङ्कार के क्षेत्र में सर्वप्रथम अवतारणा अप्यय्य दीक्षित की रचना में ही हुई । आचार्य भरत ने मिथ्याध्यवसाय को लक्षण माना था । उनके उक्त लक्षण से अप्पय्य दीक्षित के मिथ्याध्यवसिति अलङ्कार का स्वरूप भिन्न नहीं । भरत की मान्यता है कि जहाँ अभूतपूर्व अर्थ से उसके समान अर्थ का निर्णय हो, वहाँ मिथ्याध्यवसाय नामक लक्षण होता है | २ अभिनवगुप्त ने उक्त लक्षण की भरत प्रदत्त परिभाषा की व्याख्या करते हुए लिखा है कि इसमें अपारमार्थिक या असत्य अर्थ से असत्य अर्थ का निश्चय होता है । 3 अप्पय्य दीक्षित ने मिथ्याध्यवसिति अलङ्कार में इससे मिलतीजुलती ही धारणा व्यक्त की है । उन्होंने कहा है कि जहाँ कुछ मिथ्यात्व की सिद्धि के लिए मिथ्या अर्थान्तर की कल्पना की जाय, वहाँ मिथ्याध्यवसिति नामक अलङ्कार होता है ।४ स्पष्ट है कि मिथ्याध्यवसाय या मिथ्याध्यवसिति की धारणा प्राचीन है; केवल अलङ्कार के रूप में उसकी स्वीकृति नवीन है ।
ललित
ललित अलङ्कार की परिभाषा देते हुए अप्पय्य दीक्षित ने कहा है कि जहाँ प्रस्तुत धर्मी के वर्णनीय वृत्तान्त का वर्णन नहीं कर उसके प्रतिबिम्ब-रूप किसी अप्रस्तुत का वर्णन किया जाय, वहाँ ललित नामक अलङ्कार होता है । निदर्शना से इसका बहुत कम अन्तर है । पण्डितराज जगन्नाथ ने यह माना है कि बहुत कम भेद के आधार पर निदर्शना से इसका स्वतन्त्र अस्तित्व
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१. अल्पं तु सूक्ष्मादाधेयाद्यदाधारस्य सूक्ष्मता । वही, १७ २. अभूतपूर्वैर्यत्रार्थैस्तत्त ुल्यार्थस्य निर्णयः ।
समिध्याध्यवसायस्तु प्रोच्यते काव्यलक्षणम् ।
- भरत, नाट्यशास्त्र, १६,१६ ३. अपारमार्थिकैरेवार्थैस्तत्त ुल्यस्यावस्तुभूतस्यार्थान्तरस्य यस्य वक्तृव्यापारे सति निश्चयः सोऽयम् । - वही, अभिनव भारती पृ० ३०७-८ ४. किञ्चिन्मिथ्यात्वसिद्ध्यर्थं मिथ्यार्थान्तरकल्पनम् ।
- अप्पय्य, कुवलयानन्द, १२७ ५. वर्ण्यं स्याद्वर्ण्यवृत्तान्तप्रतिबिम्बस्य वर्णनम् । - वही, १२८