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________________ १८२ ] अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण उद्घाटन का मौलिक प्रयास नहीं है; गुण, अलङ्कार आदि में संख्या. की एकरूपता के स्थापन का लोभ-मात्र है। भोज ने अर्थालङ्कारों एवं उभयालङ्कारों के भी चौबीस-चौबीस प्रकारों की कल्पना की है। उनके अर्थालङ्कार हैं :-जाति या स्वभावोक्ति, विभावना, हेतु, अहेतु, सूक्ष्म, उत्तर, विरोध, सम्भव, अन्योन्य, परिवृत्ति, निदर्शन, भेद, समाहित, भ्रान्ति, वितर्क, मीलित, स्मृति, भाव, प्रत्यक्ष, अनुमान, आप्रवचन या आगम, उपमान, अर्थापत्ति तथा अभाव । उन्होंने उभयालङ्कार के रूप में जिन काव्यालङ्कारों का निरूपण किया है, वे हैं :-उपमा, रूपक, साम्य, संशयोक्ति, अपह नुति, समाध्युक्ति, समासोक्ति, उत्प्रेक्षा, अप्रस्तुतस्तुति, तुल्ययोगिता, उल्लेख, सहोक्ति समुच्चय, आक्षेप, अर्थान्तरन्यास, विशेष, परिष्कृति या परिकर, दीपक, क्रम, पर्याय, अतिशय, श्लेष, भाविक एवं संसृष्टि । उक्त अलङ्कारों में से अधिकांश के छह-छह भेदों का विवेचन कर भी भोज ने संख्या की एकरूपता के प्रति अपने मोह का परिचय दिया है। प्रस्तुत सन्दर्भ में भोज के नवीन अलङ्कारों का स्रोत-सन्धान अभिनत है। सुविधा के लिए हम उनके शब्दगत, अर्थगत एव उभयगत अलङ्कारों का क्रमशः परीक्षण करेंगे। शब्दालङ्कार जाति ___शब्दगत जाति अलङ्कार का स्वरूप अर्थगत जाति या स्वभावोक्ति से सांथा भिन्न है। यह जाति भाषा-प्रयोग का औचित्य है। संकृत, प्राकृत आदि भाषाओं का पात्र आदि के अनुरूप शुद्ध या मित्र प्रयोग भोज के अनुसार जाति नामक शब्दालङ्कार है । यह ध्यातव्य है कि भाषा आदि के उचित प्रयोग की धारणा पूर्ववर्ती आचार्यों से ही ली गयी है, केवल अलङ्कर की कोटि में उसकी गणना भोज की नवीन कल्पना है । आनन्दवद्धन आदि आचार्य औचित्य की सविस्तर मीमांसा कर चुके थे; किन्तु किसी भी आचार्य ने उसे अलङ्कार नहीं माना था। हमने अपरत्र औचित्य को गुण मानने वाले सिद्धान्त का खण्डन किया है। औचित्य को गुण या अलङ्कार का एक भेद मान लेन १. भोज, सरस्वतीकण्ठाभरण, २, ६-१७ २. द्रष्टव्य, लेखक का 'काव्य-गुणों का शास्त्रीय विवेचन'
SR No.023467
Book TitleAlankar Dharna Vikas aur Vishleshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhakant Mishra
PublisherBihar Hindi Granth Academy
Publication Year1972
Total Pages856
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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