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अलङ्कार-धारणा का विकास - [१८१ अंशों को ही प्रमाण मान कर संतोष करना पड़ेगा। प्रस्तुत विवेचन का प्रधान प्रमापक सरस्वती-कण्ठाभरण' को ही माना जा सकता है। __ भोज ने काव्य के अलङ्कारों के शब्दगत, अर्थगत एवं शब्दार्थ-उभयगत; ये तीन वर्ग स्वीकार किये हैं। उन्होंने शब्दालङ्कार के चौबीस प्रकारों का स्वरूप-निरूपण किया है। भारतीय काव्यशास्त्र में शब्दगत अलङ्कारों की इतनी संख्या कभी स्वीकृत नहीं हुई थी। हम देख चुके हैं कि भोज के पूर्व अनुप्रास, यमक, श्लेष आदि कुछ प्रसिद्ध शब्दालङ्कारों का स्वरूप ही विवेचनयोग्य माना गया था। उन्हीं के अनेक भेदोपभेदों का निरूपण हुआ था। भोज की कृतियों में शब्दालङ्कारों की यह संख्यास्फीति संख्या-विशेष के प्रति उनके विलक्षण मोह का परिणाम है। काव्य-गुणों के स्वरूप-निरूपण के क्रम में हमने चौबीस-संख्या के प्रति भोज की आसक्ति की ओर निर्देश किया है । किसी काव्य-तत्त्व की संख्या के सम्बन्ध में शास्त्रकार का पूर्वाग्रह तत्त्व-निरूपण में बाधक सिद्ध होता है। भोजराज तत्तत् काव्याङ्गों में संख्यागत एकरूपता की स्थापना के आग्रह के कारण शास्त्रकार की अपेक्षित तटस्थता का निर्वाह नहीं कर सके। उनके संख्या-विषयक पूर्वाग्रह का परिणाम शब्दालङ्कार-विवेचन में भी स्पष्ट है। शब्दगत अलङ्कारों की संख्या को चौबीस तक खींच कर ले जाने के लिए उन्होंने कुछ अलङ्कारेतर धर्मों की भी गणना अलङ्कार में कर ली है। उदाहरणार्थ, शब्दालङ्कार के रूप में परिगणित रीति, वृत्ति आदि का भारतीय काव्यशास्त्र में अलङ्कार से स्वतन्त्र अस्तित्व स्वीकार किया गया है। भोज ने रीति का अर्थ मार्ग ही स्वीकार किया है और उसके भेदों का देशगत आधार पर पूर्ववर्ती आचार्यों के द्वारा किया गया वैदर्भी, पाञ्चाली,
गौडीया आदि नामकरण भी उन्हें मान्य है। हम अपरत्र इस तथ्य पर विचार कर चुके हैं कि यद्यपि आरम्भ में देशगत आधार पर काव्य की रीतियों या मार्गों का नामकरण हुआ था; किन्तु पीछे चल कर तत्तद्देशगत रीतियों के गुणों के प्राधान्य के आधार पर विशेष गुणों को ही विशेष रीतियों का विधायक स्वीकार किया गया ।' भोज ने इस तथ्य की उपेक्षा नहीं की। उन्होंने रीति को गुणात्मक स्वीकार किया है। इसी प्रकार वृत्ति भी 'नाटयशास्त्र' से ही अलङ्कार से पृथक् अपनी सत्ता बनाये आ रही थी। रीति, वृत्ति आदि को शब्दालङ्कार के क्षेत्र में घसीट कर ले जाने में चिन्तन के नवीन क्षितिज के
१. द्रष्टव्य, लेखक का 'काव्य-गुणों का शास्त्रीय विवेचन',