________________
अलङ्कारों का स्वरूप-विकास
[ ५६१ गुण, क्रिया या जाति-रूप वस्तु का ऋहीं सद्भाव कहा जाय और अन्यत्र उसका मभाव प्रतीत हो, वहां परिसंख्या होती है। सारांश यह कि-(१) परिसंख्या प्रश्नपूर्वक भी होती है और अप्रश्नपूर्वक भी (२) इसमें एक आधार में वस्तु की स्थापना वाच्य होती है; पर दूसरे आधारों में उसका निषेध प्रतीयमान और (३) जिन आधारों में साधारण रूप से जो वस्तु रहा करती है उन्हीं आधारों में से एकत्र उस वस्तु का सद्भाव तथा अपरत्र उसका अभाव शब्दतः दिखाया जाता है।
भोज ने परिसंख्या को उक्ति नामक शब्दालङ्कार का एक भेद परिसंख्योक्ति मान लिया है। उन्होंने विधि-निषेध से शेष का ज्ञान परिसंख्या का लक्षण माना है। २ स्पष्ट है कि परिसंख्या के सम्बन्ध में उनकी धारणा रुद्रट की धारणा से अभिन्न है। इसे शब्दालङ्कार मानना उचित नहीं: क्योंकि विधि-निषेध से अन्य का परिज्ञान अर्थसापेक्ष होता है। __ मम्मट ने रुद्रट की परिसंख्या-विषयक मान्यता को स्वीकार कर उसके क्षेत्र को थोड़ा और विस्तृत कर दिया। उन्होंने निषेध के वाच्य होने में भी परिसंख्या का सद्भाव माना। परिसंख्या की परिभाषा में उन्होंने अन्यत्र वस्तु के अभाव को 'प्रतीति' का उल्लेख नहीं कर 'तादृगन्य-व्यपोह' का उल्लेख किया। अभाव की प्रतीति की अपेक्षा व्यपोह का अर्थ व्यापक है । व्यपोह या निषेध प्रतीयमान भी हो सकता है और वाच्य भी। मम्मट ने परिसंख्या की परिभाषा में कहा है कि जहाँ पूछे जाने पर या बिना पूछे कोई वस्तु शब्दतः कथित होकर अपने समान अन्य वस्तु के निषेध में पर्यवसित होती है, वहीं परिसंख्या होती है। वृत्ति में उन्होंने अपोह्यमान वस्तु के प्रतीयमान तथा वाच्य होने के आधार पर परिसंख्या के दो भेद किये हैं। पृष्ट तथा अपृष्ट भेद के उक्त दो-दो भेद होने से परिसंख्या के चार भेद उन्हें मान्य हैं।
१. पृष्टमपृष्टं वा सद्गुणादि यत्कथ्यते क्वचित्त ल्यम् । अन्यत्र तु तदभावः प्रतीयते सेति परिसंख्या ।।
-रुद्रट, काव्यालं० ७, ७६ २. द्रष्टव्य-भोज, सरस्वतीकण्ठाभरण, पृ० १४८ ३. किञ्चित् पृष्टमपृष्टं वा कथितं यत्प्रकल्प्यते ।
तादृगन्यव्यपोहाय परिसंख्या तु सा स्मृता ॥ तथा-अत्र च कथनं प्रश्नपूर्वकं तदन्यथा च परिदृष्टम, तथोभयत्र व्यपोह्यमानस्य प्रतीयमानता वाच्यं चेति चत्वारो भेदाः ।
-मम्मट, काव्यप्र० १०, १८५ तथा उसकी वृत्ति पृ० २७७