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उपसंहार
[८०७ यही समस्या का समाधान नहीं हो जाता। प्रश्न यह है कि यदि अर्थ को अलङ्कार्य मानें तो वस्तु-स्वभाव-वर्णन-परक स्वभावोक्ति आदि को अलङ्कार मानने में क्या औचित्य होगा ? वक्रोक्तिवादी कुन्तक ने, इसीलिए स्वभावोक्ति के अलङ्कारत्व को अस्वीकार कर उसे अलङ्कार्य की कोटि में रखना उचित समझा, फिर भी अलङ्कारशास्त्र में स्वभावोक्ति को अलङ्कार के रूप में ही परिगणित किया जाता रहा है। इसका कारण यह है कि उसमें वस्तु-स्वभाववर्णन में लोकोत्तर रमणीयता रहती है और उस रमणीयता के कारण ही उसे अलङ्कार माना जाता है। प्रेय, उदात्त, भाविक आदि वस्तु-वर्णन-परक अलङ्कारों के सम्बन्ध में भी अलङ्कार-अलङ्कार्य का प्रश्न उठाया जा सकता है। इन अलङ्कारों के सन्दर्भ में भी स्वभावोक्ति की तरह ही यह युक्ति दी जा सकती है कि वर्णन की लोकोत्तर सुन्दरता के कारण इन्हें अलङ्कार माना जाता है; पर प्रश्न यह होगा कि काव्य की समग्र उक्तियों में लोकोत्तर रमणीयता अनिवार्यतः रहा करती है; तभी तो लोक-व्यवहार की उक्ति से काव्य की उक्ति का भेद होता है। लोकोक्ति भी काव्योक्ति बनती है; पर उस स्थिति में उसमें लोकोत्तर रमणीयता आ जाती है । इस लोक की वस्तु काव्यलोक में लोकोत्तर रमणीय बन कर ही अवतरित होती है। इसीलिए काव्य को ब्रह्मा की सृष्टि से विलक्षण सृष्टि माना गया है। काव्य में वस्तु का जो वर्णन होता है वह लोक-सिद्ध वस्तु का केवल प्रतिबिम्बन नहीं, पुनःसृजन होता है। ऐसी स्थिति में लोकोत्तर रमणीयता के आधार पर यदि स्वभावोक्ति आदि को अलङ्कार माना जाता है तो सम्पूर्ण काव्योक्तियों को अलङ्कार ही मानना पड़ेगा, फिर अलङ्कार्य क्या बच रहेगा, जिसे अलङ कृत करने में अलङ्कार की सार्थकता होगी? ___ अलङ्कार और अलङ्कार्य का भेद तात्त्विक नहीं, व्यावहारिक है। कोई भी उक्ति अपने-आप में पूर्ण अभिव्यक्ति होती है। उसे अलङ्कार, अलङ्कार्य आदि खण्डों में केवल वैज्ञानिक विश्लेषण के लिए विभाजित किया जाता है। तात्त्विक अभेद में भेद की कल्पना किये बिना-अखण्ड को खण्डित किये बिना-वस्तु के स्वरूप का अध्ययन-विवेचन सम्भव नहीं। अतः, काव्योक्ति को तत्त्वतः अखण्ड अभिव्यञ्जना मानने पर भी भारतीय मनीषियों ने व्यावहारिक दृष्टि से उसके अङ्गों का विभाजन किया है। अलङ्कार और अलङ्कार्य का भेद भी व्यावहारिक ही है। अतः, दोनों के बीच कोई स्थिर विभाजक रेखा नहीं खींची जा सकी।