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________________ १६६ ] अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण की उत्प्रेक्षा-धारणा पर पूर्ववर्ती आचार्यों की तद्विषयक धारणा का पुष्कल प्रभाव है। काव्यालङ्कार धारणा के विकास की दृष्टि से रुद्रट के अलङ्कार सिद्धान्त के इस समीक्षात्मक अध्ययन का निष्कर्ष निम्नलिखित है___रुद्रट ने ही सर्वप्रथम काव्य के अलङ्कारों को उनके मूल तत्त्वों के आधार पर वास्तव, औपम्य, अतिशय एवं श्लेष वर्गों में विभाजित किया । भामह और उद्भट ने भी अलङ्कारों का वर्गशः उपस्थापन किया था। उद्भट के 'काव्यालङ्कारसारसंग्रह' में अध्यायों को अलङ्कार के वर्ग के आधार पर वर्ग ही कहा गया है; किन्तु वहाँ वर्गीकरण का आधार अलङ्कार का तत्त्व नहीं था। विद्वानों का अनुमान है कि भामह और उद्भट के वे वर्ग अलङ्कारों के ऐतिहासिक विकास के सूचक हैं। रुद्रट के अलङ्कार-वर्ग उनके चिन्तन की मौलिकता के परिचायक हैं। यह नहीं कहा जा सकता कि रुद्रट का वर्गीकरण सर्वथा पूर्ण एवं निर्दोष है। उनके कुछ अलङ्कारों में एकाधिक वर्गों के स्वभाव का मिश्रण है। अतः, उन्हें किसी विशेष वर्ग में माने जाने का औचित्य असन्दिग्ध नहीं। उदाहरणार्थ-वास्तव-वर्ग के व्यतिरेक अलङ्कार के स्वरूप का निर्धारण उपमान और उपमेय के उत्कर्षापकर्ष के आधार पर किया गया है। अतः, इसे औपम्य-वर्ग के अलङ्कारों से पृथक् वास्तव-वर्ग में रखना सर्वथा युक्तिसङ्गत नहीं। वास्तव-वर्ग के अलङ्कारों में वस्तुस्वरूप का वर्णन-मात्र अपेक्षित माना गया है। सादृश्य के आधार पर दो पदार्थों की तुलना औपम्य-व के अलङ्कार का लक्षण है। स्पष्ट है कि उक्त व्यतिरेक को औपम्यवर्ग में ही रखना समीचीन होता। इन त्रुटियों के होने पर भी मूलतत्त्वों के आधार पर अलङ्कार-वर्गीकरण के प्रथम प्रयास के लिए रुद्रट श्रेय के अधिकारी हैं। समान संज्ञा वाले कुछ अलङ्कार दो वर्गों में भी परिगणित हैं; किन्तु अलङ्कार-वर्ग के स्वभाव के अनुसार एक वर्ग के अलङ्कार उन्हीं अभिधान वाले दूसरे वर्ग के अलङ्कार से भिन्न-स्वभाव वाले हैं । उदाहरण के लिए वास्तव-वर्ग के सहोक्ति, समुच्चय और उत्तर अलङ्कारों का स्वरूप औपम्य-वर्ग के उन्हीं नाम वाले अलङ्कारों के स्वरूप से भिन्न है । वास्तव-वर्ग के विषम और हेतु, अतिशय वर्ग के विषम और हेतु से भिन्नस्वभाव वाले हैं। इसी प्रकार औपम्य-वर्ग के उत्प्रेक्षा एवं पूर्व अलङ्कारों की प्रकृति अतिशय वर्गगत उत्प्रेक्षा और पूर्व से स्वतन्त्र है। अतः एक ही नाम के दो वर्ग-गत अलङ्कार की पृथक्-पृथक् सत्ता स्वीकार की जानी चाहिए।
SR No.023467
Book TitleAlankar Dharna Vikas aur Vishleshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhakant Mishra
PublisherBihar Hindi Granth Academy
Publication Year1972
Total Pages856
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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