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________________ अलङ्कार-धारणा का विकास [ १६७ * रुद्रट ने अर्थालङ्कार के क्षेत्र में तैंतीस तथा शब्दालङ्कार के क्ष ेत्र में दो नवीन अलङ्कारों की गणना की है । वर्ग के अनुसार वास्तव - वर्ग में चौदह, औपम्य वर्ग में दश तथा अतिशय वर्ग में नौ नवीन अलङ्कार परिगणित हैं । वक्रोक्ति और चित्र; ये दो शब्दालङ्कार भी नवीन हैं । स्पष्ट है कि वास्तव वर्ग में सर्वाधिक नवीन अलङ्कारों की कल्पना की गयी है । संख्या की दृष्टि से तो वास्तव-वर्ग में सबसे अधिक अलङ्कार हैं ही, स्वरूपगत नवीनता की दृष्टि से भी इसी वर्ग के अलङ्कारों का आधिक्य है । कारण यह हो सकता है कि रुद्रट के पूर्ववर्ती आचार्य वस्तुस्वरूप कथन में बहुत चमत्कार नहीं मानते होंगे और इसीलिए वस्तु - वर्णनपरक अधिक अलङ्कार - प्रकार की कल्पना उन्होंने नहीं की होगी । इसे अस्वीकार नहीं किया जा सकता कि रुद्रट से पूर्व आचार्य भरत से लेकर वामन तक की रचनाओं में जितने अलङ्कारों का विवेचन हुआ था, उनमें से कई अलङ्कार वस्तुस्वरूपकथन - मात्र से सम्बद्ध थे । भामह की स्वभावोक्ति वास्तव अलङ्कार ही है । यथासंख्य, प्ररिवृत्ति, हेतु, सूक्ष्म और लेश का सम्बन्ध भी वस्तु वर्णन से ही है । यहाँ तक कि दीपक - जैसा मूल अलङ्कार भी वास्तव -कोटि में ही परिगणित हुआ है। इतना होने पर भी उक्त अलङ्कारों में एक सूक्ष्म भेद यह है कि कुछ अलङ्कारों में वर्ण्य-वस्तु के स्वरूप मात्र पर विचार किया गया है तथा कुछ में वस्तु वर्णन की विशिष्ट: प्रक्रिया पर । यथासंख्य, दीपक आदि में वस्तु-वर्णन की विशिष्ट प्रक्रिया अपेक्षित मानी गयी है; किन्तु स्वभावोक्ति, परिवृत्ति आदि में केवल वर्ण्य के स्वरूप पर विचार किया गया है । वस्तु वर्णन की चमत्कारपूर्ण पद्धति में अलङ्कारत्व असन्दिग्ध है; किन्तु वर्ण्य-वस्तु को अलङ्कार मानने में दो मत रहे हैं । एक मत यह है कि अलङ्कार वर्ण्य से अभिन्न नहीं । वे वर्ण्य की श्रीवृद्धि करने वाले उसके सहायक तत्त्व हैं, जिनकी वर्ण्य से पृथक् सत्ता मानी ही जानी चाहिए । आचार्य पण्डित रामचन्द्र शुक्ल ने स्वभावोक्ति को अलङ्कार की सीमा में घसीट लाने को अयौक्तिक कहा है । पण्डित लक्ष्मीनारायण सुधांशु ने भी वस्तु मात्र से सम्बद्ध अनेक अलङ्कारों का अलङ्कारत्व अस्वीकार्य सिद्ध किया है । २ संस्कृत के आचार्यों में भी वस्तुस्वरूपकथन - मात्र से सम्बद्ध अलङ्कारों की स्वीकृति के सम्बन्ध में ऐकमत्य नहीं । भामह ने स्वभावोक्ति १. द्रष्टव्य - त्रिवेणी ( सूरदास ) पृ० १०२ २. द्रष्टव्य — काव्यमें अभिव्यञ्जनावाद पृ० ८६
SR No.023467
Book TitleAlankar Dharna Vikas aur Vishleshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhakant Mishra
PublisherBihar Hindi Granth Academy
Publication Year1972
Total Pages856
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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