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अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
के आविर्भाव का श्रेय कल्पितोपमा की कल्पना करने वाले भरत को ही मिलना चाहिए ।
स्वभावोक्ति
भामह ने स्वभावोक्ति का उल्लेख करते हुए कहा है कि कुछ लोग: इसे अलङ्कार मानते हैं । उन्होंने स्वयं इसके अलङ्कारत्व का न खण्डन किया है न मण्डन । वक्रोक्तिवादी होने के कारण उन्होंने काव्य में स्वभावोक्ति अलङ्कारः को विशेष महत्त्व नहीं दिया है । स्वभावोक्ति की परिभाषा में उन्होंने कहा है कि इसमें किसी अर्थ का अवस्थानुरूप वर्णन होता है । ' वस्तुस्वभाव के यथारूप वर्णन के कारण ही इसे स्वभावोक्ति कहा जाता है । स्वभावोक्ति का अलङ्कार के रूप में निर्देश सर्वप्रथम भामह की पुस्तक में ही हुआ है। भरत ने इस स्वभावोक्ति अलङ्कार से मिलती-जुलती धारणा अर्थव्यक्ति गुण की परिभाषा में व्यक्त की है। उन्होंने उक्त गुण में लोक- प्रसिद्ध अर्थ के स्फुट वर्णन पर बल दिया है । २ सम्भव है कि भरत की इस गुण-धारणा ने ही पीछे चलकर स्वभावोक्ति अलङ्कार की धारणा को जन्म दिया हो ।
प्रेय
काव्यालङ्कार में प्रय अलङ्कार की परिभाषा नहीं दी गई है । भामह के द्वारा दिये गए प्रय के उदाहरण के अधार पर उनकी एतद्विषयक मान्यता का निर्धारण किया जा सकता है । इसके उदाहरण में कृष्ण के प्र विदुर का कथन वर्णित है । अपने घर आये हुए कृष्ण से विदुर ने कहा कि हे. गोविन्द ! आज आपके आने से मुझे जैसा आनन्द हुआ है ऐसा आनन्द फिर कभी आप के आने से ही हो सकेगा । 3 स्पष्ट है कि किसी के प्रति प्रिय कथन
१. स्वभावोक्तिरलङ्कार इति केचित् प्रचक्षते । अर्थस्य तदवस्थत्वं स्वभावोऽभिहितो यथा ॥
- भामह, काव्यालं० २, ६३
२. सुप्रसिद्धाभिधाना तु लोककर्मव्यवस्थिता । या क्रिया क्रियते काव्ये सार्थव्यक्तिः प्रकीर्त्यते ॥
- भरत, ना० शा ०, १६, १०८
३.
प्रयो गृहागतं कृष्णमवादीद्विदुरो यथा । अद्यया मम गोविन्द जाता त्वयि गृहागते । कालेनैषा भवेत् प्रीतिस्तवैवागमनात् पुनः ॥
— भामह, काव्यालं० ३, ५.
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