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अलङ्कारों का वर्गीकरण
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का ही मिश्रण नियत होने से उस अलङ्कार का स्वरूप निर्धारित है, वहाँ सङ्कर और संसृष्टि में एक से अधिक किन्हीं भी अलङ्कारों के मिश्रण की सम्भावना होने से उनका स्वरूप-निर्धारण सम्भव नहीं। अतः, नियत-स्वभाव तथा अनियत-स्वभाव अलङ्कारों का अध्ययन स्वतन्त्र वर्गों में किया जाना चाहिए । संसृष्टि और सङ्कर का विवेचन कुछ आचार्यों ने 'सङ्कीर्ण' शीर्षक में किया है। इसलिए अलङ्कारों की संसृष्टि तथा उनके सङ्कर को सङ्कीर्ण अलङ्कार-वर्ग में रखा जा सकता है। आश्रय-भेद के आधार पर अलङ्कारों के निम्नलिखित पाँच वर्गों की कल्पना की जा सकती है
१. शब्दालङ्कार-वर्ग २. अर्थालङ्कार-वर्ग ३. उभयालङ्कार-वर्ग [४. मिश्रालङ्कार वर्ग तथा
1 ५. सङ्कीर्ण अलङ्कार-वर्ग इन में प्रथम तीन का विभाजन तो केवल उनके आश्रय-भेद के आधार पर है; पर चौथे और पाँचवें वर्गों की कल्पना का आधार तत्तदलङ्कार-तत्त्वों का मिश्रण है। चौथे वर्ग के अलङ्कारों में दो अलङ्कारों के मिश्रण से नियत-स्वभाव विशेष अलङ्कार बन जाता है; पर पांचवें वर्ग में एक आश्रयगत तत्तदलङ्कारों की विशेष प्रकार की स्थिति का ही अध्ययन किया जाता है। शब्दालङ्कार : ___ शब्दालङ्कार में शब्द का चमत्कार प्रमुख रूप से रहता है। इसमें अर्थ: का विचार सर्वथा नहीं होता हो, यह बात नहीं। लाटानुप्रास में तात्पर्यमात्र के भेद से शब्द और अर्थ; दोनों की आवृत्ति अपेक्षित होती है। यमक में एक-से शब्द में अर्थ का भेद रहना आवश्यक माना जाता है। इस प्रकार शब्दालङ्कार में भी अर्थ का विचार रहता है; पर अर्थालङ्कार से इसका भेद यह है कि यह शब्द पर आश्रित रहता है। फलतः, यह अपने आश्रयभूत शब्द का पर्याय-परिवर्तन सहन नहीं कर सकता। अतः, अन्वय-व्यतिरेक से यह सिद्ध किया गया है कि किसी शब्द के स्थान पर उसका पर्यायवाची शब्द रख देने पर यदि अलङ्कारत्व नष्ट हो जाता है तो वह शब्दालङ्कारः होगा। पर्याय-परिवर्तन किये जाने पर भी यदि अलङ्कारत्व नष्ट नहीं होता तो उसे शब्दालङ्कार नहीं माना जा सकता।