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अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
आश्रित होती है। भरत की उपमा-धारणा का सार यह होगा कि उपमा में दो वस्तुओं में गुण और आकृति का सादृश्य होने से एक वस्तु की दूसरी वस्तु के साथ तुलना की जाती है । स्पष्टतः, भरत के उपमा-लक्षण पर यास्क के द्वारा निर्दिष्ट गार्यकृत उपमा-लक्षण का पुष्कल प्रभाव होने पर भी किञ्चित् नवीनता है। एक तो काव्य-बन्ध की चर्चा कर आचार्य भरत ने सादृश्य में चारुता की धारणा को प्रकारान्तर से मिला दिया । अतः, 'यत्किञ्चित्' के उल्लेख से भरत की उपमा-परिभाषा का अर्थ "जिस-किसी प्रकार से सादृश्य के आधार पर की जाने वाली तुलना' नहीं माना जा सकता। गार्य ने गुण के सादृश्य का उल्लेख किया तो भरत ने उपमा को गुणाकृतिसमाश्रया कह कर उसमें किञ्चित् वैशिष्ट्य का आधान किया।
भामह ने अपने पूर्ववर्ती आचार्य भरत के उपमा-लक्षण को स्वीकार नहीं किया। उन्होंने उपमा की परिभाषा में कहा कि जहां देश-काल, क्रिया आदि की दृष्टि से विरुद्ध उपमान के साथ उपमेय का गुण-लेश के कारण साम्य दिखाया जाय, वहाँ उपमा होती है । २ भामह की मान्यता है कि एक वस्तु का दूसरी वस्तु से साम्य वास्तविक नहीं, कवि कल्पित ही हुआ करता है; क्योंकि -संसार में एक वस्तु का दूसरी वस्तु से तात्त्विक साम्य हो ही नहीं सकता। हर वस्तु दूसरी वस्तु से विलक्षण हुआ करती है । कवि की प्रतिभा दो वस्तुओं में गुण के लेश से साम्य ढूढ़ कर उपमा की योजना करती है। 3 ____ दण्डी ने जिस-किसी प्रकार के सादृश्य की प्रतीति में उपमा की सत्ता मान • ली। आचार्य भरत ने उपमा के लक्षण में 'यत्किञ्चित्' शब्द का प्रयोग किया था और किञ्चित् सदृशी उपमा आदि की सत्ता स्वीकार की थी। दण्डी की उपमा-धारणा भरत की उसी धारणा से अनुप्राणित है।
१. यत्किञ्चित् काव्यबन्धेषु सादृश्येनोपमीयते ।
उपमा नाम सा ज्ञया गुणाकृतिसमाश्रया ॥-भरत, ना० शा १६, ४१ २. विरुद्ध नोपमानेन देशकालक्रियादिभिः ।
उपमेयस्य यत्साम्यं गुणलेशेन सोपमा ॥–भामह, काव्यानं० २, ३० ३. वही, २, ४३-४४ ४. यथाकथञ्चित् सादृश्यं यत्रोद्भूतं प्रतीयते । उपमा नाम सा तस्याः प्रपञ्चोऽयं निदर्श्यते ॥
-दण्डी काव्याद० २, १४