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________________ २७०] अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण के आधार पर की गयी है। जयदेव के अनुसार इसमें अद्भुत तथा असत्य शौर्य, दान आदि का वर्णन किया जाता है । दण्डी ने भी कान्ति गुण में अलोकसिद्ध अर्थ के वर्णन पर बल दिया था। दण्डी ने स्वयं कान्ति के लिए अत्युक्ति, इस अपर पर्याय का प्रयोग किया था ।' स्पष्ट है कि दण्डी की उक्त कान्ति या अत्युक्ति की धारणा को लेकर जयदेव ने प्रस्तुत अलङ्कार की कल्पना की है। ___ 'चन्द्रालोक' में विवेचित उक्त अलङ्कारों के परीक्षण से प्राप्त निष्कर्ष 'निम्नलिखित हैं : ( क ) पूर्वाचार्यों ने जहाँ एक अलङ्कार के एकाधिक रूपों की कल्पना की थी, वहाँ जयदेव ने उन रूपों के आधार पर अनेक परस्पर स्वतन्त्र 'अलङ्कारों की कल्पना कर ली। इस प्रकार मम्मट आदि आचार्यों की अतिशयोक्ति के एक रूप को अतिशयोक्ति अभिधान से स्वीकार किया गया तथा उसी के दूसरे रूप को–यद्यर्थोक्त-प्रकल्पन रूप को सम्भावना नाम से - स्वतन्त्र अलङ्कार मान लिया गया। रुय्यक आदि के विषम अलङ्कार के दो रूपों के आधार पर विषम तथा विषादन, इन दो अलङ्कारों की कल्पना कर ली गयी। विरूप घटना-रूप विषम को विषम संज्ञा से स्वीकार कर उसके अनर्थोत्पत्ति रूप को विषादन नाम से नवीन अलङ्कार स्वीकार किया गया। "प्राचीन आचार्यों के प्रतीप के लक्षण के आधार पर ही प्रतीप तथा प्रतीपोपमा के पृथक्-पृथक् अस्तित्व की कल्पना की गयी। प्राचीनों के एक अलङ्कार के अनेक रूपों के आधार पर एकाधिक अलङ्कार की कल्पना 'चन्द्रालोक' में अलङ्कार की संख्यावृद्धि का एक कारण है। सम्भावना, विषादन तथा प्रतीपोपमा आदि नवीन अलङ्कारों के आविर्भाव का यही रहस्य है। ( ख ) जयदेव में थोड़े-थोड़े बहुत ही सूक्ष्म भेदों के आधार पर अलगअलग अलङ्कारों को कल्पना को प्रवृत्ति अधिक पायी जाती है। प्राचीन आचार्यों में सामान्य रूप से तथ्य-निर्देश की प्रवृत्ति थी। जब नवीन-नवीन तथ्यों की उद्भावना का समय समाप्त हुआ तो उन्हीं पूर्वनिर्दिष्ट तथ्यों के १. इदमत्युक्तिरित्युक्तम्........."।—दण्डी, काव्यादर्श, १,६२ तथा उस पर 'कुसुमप्रतिमा' टीका-इदम् = उपरि दर्शितमेवम्प्रकारं काव्यम् 'अत्युक्तिः' इत्युक्तम् = अत्युक्तिनाम्ना कथितमालङ्कारिकः। तथा च जयदेवः--अत्युक्तिरद्भुतातथ्यशोर्योदार्यादिवर्णनम् ।-पृ० ६०
SR No.023467
Book TitleAlankar Dharna Vikas aur Vishleshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhakant Mishra
PublisherBihar Hindi Granth Academy
Publication Year1972
Total Pages856
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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