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अलङ्कार-धारणा का विकास
[ २७१ आधार पर सूक्ष्म भेदों को लेकर अलग-अलग नाम से अलग-अलग अलङ्कारों की कल्पना की जाने लगी। भूत-भावी अर्थ के साक्षात्कार-रूप भाविक से स्वतन्त्र देशात्म-विप्रकृष्ट अर्थ के दर्शन-रूप भाविकच्छवि की कल्पना, ‘अन्य के संसर्ग में आकर उसके गुण को ग्रहण करने की प्रकृति वाले तद्गुण से अलग संसर्ग में आने वाली वस्तु का गुण ग्रहण कर अपने गुण का उत्कर्ष करने की प्रकृति वाले अनुगुण की कल्पना तथा साभिप्राय विशेषण-प्रयोग-रूप परिकर से पृथक् साभिप्राय विशेष्य-प्रयोग-रूप परिकराङ कुर की कल्पना इसी प्रवृत्ति का द्योतक है।
(ग) प्राचीन आचार्यों के कुछ अलङ्कारेतर काव्य-तत्त्वों के आधार पर भी पीछे चल कर कुछ अलङ्कारों की कल्पना की गयी है। जयदेव ने भी आचार्य दण्डी के कान्ति गुण के आधार पर, जिसे उन्होंने अत्युक्ति भी कहा है, अत्युक्ति नामक अलङ्कार की कल्पना की है।
(घ ) जयदेव ने कुछ ऐसे अलङ्कारों की भी नवीन नाम से कल्पना की है, जिनकी सम्भावना प्राचीन आलङ्कारिकों के विशेष अलङ्कार में ही थी। विकस्वर की कल्पना इस कथन का प्रमाण है। अर्थान्तरन्यास में सामान्य और विशेष का एक दूसरे से समर्थन वाञ्छनीय माना गया था। उसी की एक विशेष प्रक्रिया विकस्वर में पायी जाती है। इसमें विशेष का सामान्य से तथा फिर सामान्य का विशेष से समर्थन किया जाता है। असम्भव की सम्भावना विरोधाभास के सामान्य लक्षण में ही निहित थी।
(ङ) कुछ ऐसे स्वतन्त्र अलङ्कार की भी कल्पना 'चन्द्रालोक' में की गयी है, जिसके स्वरूप का प्राचीन आचार्य के किसी अलङ्कार-विशेष से इतना कम भेद है कि उसके स्वतन्त्र अस्तित्व की कल्पना केवल कल्पनाविलास के लिए ही की गयी जान पड़ती है। उदाहरणार्थ; प्रौढोक्ति का स्वरूप अतिशयोक्ति से इतना मिलता-जुलता है कि उसके पृथक् अस्तित्व की कल्पना अनावश्यक ‘जान पड़ती है।
(च) चन्द्रालोककार ने कुछ प्राचीन अलङ्कारों के विपरीत स्वभाव वाले अलङ्कारों की भी कल्पना की है। मीलित-विपर्ययात्मक उन्मीलित की कल्पना इसका प्रमाण है।
(छ )उल्लास, पूर्वरूप, प्रहर्षण तथा अवज्ञा अलङ्कारों का उद्भावना के श्रेय के भागी जयदेव हैं।
उक्त अलङ्कारों के अतिरिक्त 'कुवलयानन्द' में विवेचित कुछ अलङ्कारों