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अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
को भी कुछ साहित्येतिहासविदों ने जयदेव के द्वारा कल्पित माना है। हम देख चुके हैं कि यह मान्यता विवादमुक्त नहीं है। कुछ विद्वान उन अलङ्कारों को जयदेव के परवर्ती आचार्य अप्पय्य दीक्षित की उद्भावना मानते हैं। उक्त मतों का परीक्षण कर किसी निष्कर्ष की प्राप्ति का आयास प्रस्तुत सन्दर्भ में प्रस्तुत पंक्तियों के लेखक को अभीष्ट नहीं है। इस अध्याय में काव्यशास्त्र में परिगणित नवीन अभिधान वाले अलङ्कारों के स्वरूप का केवल इस दृष्टि से अध्ययन अपेक्षित है कि उन उक्तिभङ्गियों के स्वरूप से प्राचीन आचार्य किसी-न-किसी रूप में परिचित थे या नहीं। दूसरे शब्दों में उन अलङ्कारों के स्वरूप का बीज प्राचीन आचार्यों के काव्य-सिद्धान्त में पाया जाता है या नहीं। इस उद्देश्य में इस बात से विशेष अन्तर नहीं पड़ेगा कि वे अलङ्कार 'चन्द्रालोक' में सर्वप्रथम विवेचित हुए या 'कुवलयानन्द' में। अतः उन अलङ्कारों के स्रोत का अन्वेषण हम अप्पय्य दीक्षित की अलङ्कार-धारणा के अध्ययन-- क्रम में करेंगे।
अलङ्कारोदाहरण 'अलङ्कारोदाहरण' के रचयिता के सम्बन्ध में विद्वानों में मतभेद है। मुरारिदान के 'यशवन्त यशोभूषण' में यशस्कर को 'अलङ्कारोदाहरण' का रचयिता माना गया है।' डॉ० डे के अनुसार रुय्यक के 'अलङ्कार-सर्वस्व' पर विमशिनी-नामक टीका लिखने वाले जयरथ ने 'अलङ्कारोदाहरण' की रचना की थी। इस ग्रन्थ का उद्देश्य बच्चों को सरलता से अलङ्कार का ज्ञान कराना था। अतः अलङ्कार-विषयक मौलिक चिन्तन की अपेक्षा अलङ्कारलक्षण की सरलता को ही दृष्टि से इस कृति का अधिक महत्त्व है । 'विमशिनी' में शोभाकर के जिन अलङ्कारों का खण्डन किया गया है, उन्हें भी 'अलङ्कारोदाहरण' में सोदाहरण विवेचित किया गया है । प्रस्तुत सन्दर्भ में उक्त ग्रन्थ में निरूपित नवीन अलङ्कारों का ही परीक्षण इष्ट है।
मुरारिदान ने 'अलङ्कारोदाहरण' के आठ नवीन अलङ्कारों की चर्चा की है। वे हैं:-अङ्ग, अनङ्ग, अप्रत्यनीक, अभ्यास, अभीष्ट, तात्पर्य, तत्सदृशाकार तथा प्रतिबन्ध ।
१. रामचन्द्र द्विवेदी, अलङ्कारसर्वस्व-मीमांसा, पृ० ५४ २. डॉ० डे, History of Sanskrit Poetics, खण्ड १, पृ० १८६