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अलङ्कारों का स्वरूप-विकास
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पक्षा, सम्भ्रान्त, हीन आदि पात्रों की काल- विशेष तथा अवस्था - विशेष में विशेष प्रकार की चेष्टा का वर्णन रमणीय होता है । ऐसा ही वर्णन रुद्रट के मत से स्वभावोक्ति अलङ्कार है । उद्भट के लक्षण से इस लक्षण की इतनी समता अवश्य है कि इसमें भी सजीव पदार्थों - मनुष्य, पशु, पक्षी - की ही चेष्टा का वर्णन अपेक्षित माना गया है, पर उद्भट की तरह रुद्रट ने मानसिक चेष्टा का वर्णन आवश्यक नहीं माना है । प्राणियों की केवल शारीरिक चेष्टाओं के सजीव वर्णन में भी रुद्रट स्वभावोक्ति मानेंगे | भामह - दण्डी की तरह जड़ वस्तु के वर्णन में रुद्रट अलङ्कार नहीं मानेंगे । भामह और दण्डी ने भी स्वभावोक्ति के उदाहरणों में प्राणियों के ही स्वभाव का वर्णन दिखाया था; पर उनकी स्वभावोक्ति - परिभाषा का क्षेत्र विस्तार जड़ वस्तु के स्वरूप - वर्णन तक भी था । सम्भव है, प्राणियों के चेष्टा- वर्णन का उदाहरण देखते हुए रुद्रट ने वहीं तक स्वभावोक्ति का क्षेत्र सीमित कर दिया हो ।
भोजने दण्डी की तरह जाति या स्वभावोक्ति को अर्थालङ्कारों में मुख्य माना है । दण्डी ने उपमा आदि से भी अधिक महत्त्व स्वभावोक्ति को दिया था । भोज उपमा आदि को उभयालङ्कार मानते हैं और जाति को मर्थालङ्कारों में मुख्य । अतः इस विषय में निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता कि वे उपमा आदि से भी जाति को अधिक महत्त्व देते थे या नहीं । अर्थालङ्कारों में जाति को मुख्य मानने में भोज की युक्ति यह है कि सभी अर्थालङ्कार वस्तु के स्वरूप पर आश्रित रहते है और जाति में वस्तु के स्वरूप का स्फुट वर्णन होता है । जाति के लक्षण में भोज ने रुद्रट की तरह नाना अवस्थाओं में वस्तु के जायमान रूप का वर्णन अपेक्षित माना । वह जायमान रूप वस्तु के स्वभाव से ही उत्पन्न होना चाहिए । इस प्रकार १. संस्थानावस्थानक्रियादि यद्यस्य यादृशं भवति । लोके चिरप्रसिद्ध तत्कथनमनन्यथा जातिः ॥ शिशुमुग्धयुवतिकातरतिर्यक् संभ्रान्तहीनपात्राणाम् । सा कालावस्थोचितचेष्टासु विशेषतो रम्या |
२. नानावस्थासु जायन्ते यानि रूपाणि स्वेभ्यः स्वेभ्यो निसर्ग भ्यस्तानि जातिं
- रुद्रट, काव्यालं० ७, ३०-३१ : वस्तुनः । प्रचक्षते ॥
- भोज, सरस्वतीकण्ठाभरण ३, ४