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________________ २४० ] अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण कल्पना अवश्य पायी जा सकती है, पर ठीक ऐसे स्वरूप की कल्पना किसी अलङ्कार लक्षण में नहीं पायी जाती। प्रतीप में अन्य उपमान के लाभ से उपमेय की उपेक्षा की धारणा व्यक्त की गयी थी। विनोद में भी सदृश वस्तु की प्राप्ति से वर्ण्य की उपेक्षा अन्ततः परिणत होती है। इस प्रकार प्रतीप के उक्त भेद को विनोद की कल्पना का आधार माना जा सकता है। इतना होने पर भी विनोद का प्रतीप से यह भेद है कि इसमें प्रतीप की तरह प्रस्तुत का अनादर प्रकट नहीं रहता। उसकी केवल व्यञ्जना हो सकती है । यह अलङ्कार इस मनोवैज्ञानिक तथ्य पर आधृत है कि किसी वस्तु के समान वस्तु से उस वस्तु की अभिलाषा कुछ हद तक तृप्त हो जाती है। व्यासङ्ग व्यासङ्ग अलङ्कार में अन्य वस्तु के संसर्ग से किसी अनुभव, स्मृति आदि का तिरोहित हो जाना वणित होता है। किसी तीव्र भावानुभूति से अन्य भाव की अनुभूति का तिरोहित हो जाना मनोवैज्ञानिक तथ्य है। एक अनुभव, स्मृति तथा किसी अन्य क्रिया से अन्य अनुभव आदि के तिरोभाव-वर्णन में अलङ्कार विशेष मानना उचित नहीं। भावों के आविर्भाव-तिरोभाव का अध्ययन अलङ्कार से पृथक् रस, भाव आदि के क्षेत्र में किया जाता है। उसे अलङ्कार का एक भेद मान लेना उसके महत्त्व को परिमित करना है। शोभाकर ने भावशान्ति, भावोदय आदि से पृथक व्यासङ्ग अलङ्कार के अस्तित्व की स्थापना का प्रयास किया है, किन्तु वह बुद्धिविलास-मात्र है। वैधर्म्य वैधर्म्य को शोभाकर ने स्वतन्त्र अलङ्कार माना है। यह रुय्यक, मम्मट आदि के वैधर्म्य से समर्थन रूप अर्थान्तरन्यास से अभिन्न है ।२ शोभाकर ने पूर्वाचार्यों के सभी अर्थान्तरन्यास भेदों को स्वीकार नहीं किया है। वे साधर्म्य से समर्थन में अर्थान्तरन्यास तथा वधर्म्य से समर्थन में वैधर्म्य अलङ्कार मानते हैं। स्पष्ट है कि यह अलङ्कार नाममात्र से नवीन है, इसकी धारणा प्राचीन है। १. अनुभवस्मृत्यादिप्रत्यूहो व्यासङ्गः।-शोभाकर, अलं० रत्ना० २१ २. 'उद्दिष्टस्य प्रतिपक्षतयानुनिर्देशो वैधर्म्यम् ।'-शोभाकर, अलं० रत्ना० २५ । तुलनीय-रुय्यक अलं० सू० ३५ तथा उसकी वृत्ति, पृ० १३१
SR No.023467
Book TitleAlankar Dharna Vikas aur Vishleshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhakant Mishra
PublisherBihar Hindi Granth Academy
Publication Year1972
Total Pages856
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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