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अलङ्कार-धारणा का विकास
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उदाहरण में उद्धृत किया था, उसे ही शोभाकर ने उदाहरण का उदाहरण माना है।' शोभाकर ने अर्थान्तरन्यास से उदाहरण का इतना भेद मान लिया है कि अर्थान्तरन्यास में सादृश्य का वाचक शब्द उक्त नहीं रहता, पर उदाहरण में वह उक्त रहता है । सादृश्य का वाचक उक्त हो या अनुक्त अलङ्कार में इसका महत्त्व नहीं; महत्व है सामान्य तथा विशेष कथन का क्रमशः विशेष और सामान्य कथन से समर्थन का। यह अर्थान्तरन्यास में भी होता है और उदाहरण में भी। फिर उदाहरण का अर्थान्तरन्यास से पृथक् अस्तित्व क्यों माना जाय ? शोभाकर के परवर्ती आचार्यों में से पण्डितराज जगन्नाथ ने तो उदाहरण का स्वतन्त्र अस्तित्व स्वीकार किया है. पर अन्य आचार्यों ने उसका सद्भाव नहीं माना है। शोभाकर ने उदाहरण का व्यपदेश आचार्य भरत के एतत्संज्ञक लक्षण से लिया है। प्रतिमा
शोभाकर का प्रतिमा अलङ्कार प्राचीन आचार्यों की उपमा-धारणा के आधार पर ही कल्पित है। शोभाकर के अनुसार प्रतिमा में अन्य धर्म का योग होने के कारण औपम्य अर्थगत होता है। अन्य धर्म के अन्यत्र आरोप की 'धारणा नवीन नहीं है। आर्थी उपमा में औपम्य अर्थगत ही होता है । अतः
उपमा से प्रतिमा के स्वतन्त्र अस्तित्व की कल्पना आवश्यक नहीं जान पड़ती। 'परवर्ती आचार्यों ने भी शोभाकर की प्रतिमा का अलङ्कारत्व स्वीकार नहीं किया है। विनोद
विनोद के लक्षण में कहा गया है कि जहाँ अनुभूत या अननुभूत वाञ्छित वस्तु के अप्राप्त होने पर उसके सदृश अन्य वस्तु से अपनी उत्कण्ठा शान्त की जाती है वहाँ विनोद नामक अलङ्कार होता है । यह शोभाकर का नवीन अलङ्कार है । प्राचीन आचार्यों की अलङ्कार-धारणा में इससे मिलती-जुलती उक्ति की
१. कुमारसम्भव का श्लोक 'अनन्तरत्नप्रभवस्य यस्य...' आदि अलङ्कारसूत्र
में अर्थान्तरन्यास के उदाहरण के रूप में उद्धृत है। उसे ही अलङ्काररत्नाकर में उदाहरण के उदाहरण में उद्धृत किया गया है।
-अलं० सू० पृ० १३१ तथा अलं० रत्ना० पृ० १३ २. अन्य वर्मयोगादार्थमोपग्यं प्रतिमा।-शोभाकर, अलं० रत्ना०, १३ ३. अन्यासङ्गात्कौतुकविनोदो विनोदः । -वही, २०