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१५६ ] अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण अलङ्कारों के एकाधिक स्वरूप कल्पित हैं, जिनमें से कोई रूप प्राचीन अलङ्कारों के मेल में है और कोई स्वतन्त्र । इन दृष्टियों से रुद्रट के प्राचीन नाम, पर नवीन रूप वाले अलङ्कारों को निम्नलिखित वर्गों में विभाजित किया जा सकता है(क) नाम प्राचीन; किन्तु स्वभाव किञ्चित् नवीन–वास्तव-वर्ग के
परिवृत्ति एवं सूक्ष्म; औपम्य-वर्ग के सहोक्ति और आक्षेप । (ख) सामान्य स्वरूप प्राचीन; किन्तु भेद नवीन-शब्दगत श्लेष, औपम्य
मूलक संशय एवं अर्थान्तरन्यास । (ग) एकाधिक स्वरूप वाले अलङ्कार, जिनमें कुछ स्वरूप प्राचीन और
कुछ नवीन-अतिशय-वर्ग की विभावना, वास्तव-वर्ग के सहोक्ति
और व्यतिरेक तथा औपम्य-वर्ग की उत्प्रेक्षा। उपरिलिखित अलङ्कारों के नवीन स्वरूपों अथवा नवीन भेदों की कल्पना के मूल का अनुसन्धान वाञ्छनीय है। परिवृत्ति ___रुद्रट ने परिवृत्ति-विषयक मूल धारणा को प्राचीन आचार्यों से लेकर
भी कुछ नवीन रूप प्रदान किया है। उन्होंने उद्भट की तरह वस्तुओं के • पारस्परिक आदान-प्रदान में प्रवृत्ति अलङ्कार का सद्भाव माना है । वस्तुओं के तात्त्विक दान-ग्रहण के अभाव में भी प्रसिद्धि के कारण उसके उपचार में परिवृत्ति की सत्ता स्वीकार करने में रुद्रट के विचार की नवीनता है।' वस्तु की वास्तविक स्थिति के नहीं होने पर भी उसका उपचार से प्रयोग हुआ करता है। हृदय की कली का विकसित होना आदि प्रयोग उपचार से ही हुआ करता है। उपचार पर शब्दशक्ति के सन्दर्भ में विचार होता है। उपचार की कल्पना नवीन नहीं। रुद्रट ने तात्त्विक आदान-प्रदान के साथ ही उसके औपचारिक प्रयोग में भी परिवृत्ति का सद्भाव स्वीकार कर लिया।
सूक्ष्म ___ रुद्रट के पूर्व केवल दण्डी ने सूक्ष्म अलङ्कार का लक्षण-निरूपण किया था। भामह उसके अलङ्कारत्व का निषेध कर चुके थे। उद्भट ने सम्भवतः १. युगपद्दानादाने अन्योन्यं वस्तुनोः क्रियेते यत् । क्वचिदुपचर्येते वा प्रसिद्धितः सेति परिवृत्तिः ।।-रुद्रट, काव्यालं० ७,७७