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अलङ्कार-धारणा का विकास
[ १५५. थोड़ा भेद यह है कि जहाँ दण्डी कार्य-कारण के एक साथ वर्णन को हेतु में अपेक्षित मानते थे, वहाँ रुद्रट ने इसमें कार्य-कारण का ऐक्य अपेक्षित माना है। भामह ने हेतु के अलङ्कारत्व का खण्डन किया था। दण्डी ने उसे वाणी के उत्तम आभूषणों में एक माना। उनके उत्तरवर्ती आचार्य उद्भट ने उसका नामोल्लेख नहीं किया है। वे सम्भवतः उसे काव्यलिङ्ग या काव्यहेतु से अभिन्न मानते थे। वामन के काव्यालङ्कार में भी वह स्थान नहीं पा सका। रुद्रट ने आचार्य दण्डी के हेतु का विवेचन तो किया है; किन्तु उसे वाणी का उत्तम अलङ्कार नहीं कहा है। हाँ, उन्होंने इसे अन्य अलङ्कारों से विलक्षण अवश्य कहा है।' हेतु की अन्य अलङ्कारों से विलक्षणता से रुद्रट का क्या अभिप्राय था, यह विचारणीय है। रूद्रट के पूर्व हेतु, सूक्ष्म और लेश के अलङ्कारत्व के सम्बन्ध में दो मत थे। कुछ आचार्य या तो उनमें सौन्दर्य का अभाव मान कर उनका अलङ्कारत्व अस्वीकार करते थे या उनका अन्य अलङ्कार में अन्तर्भाव मान कर उनके स्वतन्त्र अस्तित्व का निषेध करते थे। रुद्रट ने उन मतों के खण्डन के लिए हेतु को अलङ्कार कहा और अन्य अलङ्कारों में उसके अन्तर्भाव की सम्भावना के खण्डन के लिए उसे अन्य अलङ्कारों से स्वतन्त्र कहा । नमिसाधु की यही मान्यता है ।२ __औपम्य-वर्ग के उपमा, रूपक, अपह नुति, समासोक्ति, अन्योक्ति या अप्रस्तुतप्रशंसा तथा दृष्टान्त अलङ्कारों के सम्बन्ध में रुद्रट की धारणा पूर्ववर्ती आचार्यों की धारणा से अभिन्न है। अतिशय-वर्ग की उत्प्रेक्षा का स्वरूप भी प्राचीन आचार्यों की उत्प्रेक्षा से मिलता-जुलता ही है। श्लेषवर्ग के श्लेष अर्थालङ्कार की स्वरूप-कल्पना में रुद्रट पर भामह आदि आचार्यों की श्लेष-धारणा का प्रभाव स्पष्ट है। प्राचीन व्यपदेश वाले कुछ अलङ्कारों के विषय में रुद्रट की मान्यता कुछ मौलिक है। उनमें से कुछ अलङ्कारों की प्रकृति किञ्चित् नवीन है; कुछ का सामान्य स्वरूप तो प्राचीन आचार्यों के मतानुसार कल्पित है; किन्तु उनके नवीन भेदों की कल्पना की गयी है। कुछ
१. हेतुमता सह हेतोरभिधानमभेदकृद्भवेद्यत्र।
सोऽलङ्कारो हेतुः स्यादन्येभ्यः पृथग्भूतः ।।-रुद्रट. काव्यालं० ७,८२ २. अन्येभ्यो अलङ्कारेभ्यः पृथग्भूतो विलक्षणः । अत्र वालङ्कारग्रहणमन्येभ्यः
पृथग्भूत इति च परमतनिरासार्थम् । तथा हि नाम हेतुसूक्ष्मलेशानामलङ्कारत्वं नेष्टम् । एषां चालङ्कारत्वं विद्यते। वाक्यार्थालङ्करणान्न चान्यत्रान्तर्भावः शक्यते कर्तु मिति-वही, टीका पृ० २३१