________________
१५४ ]
अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
के प्रस्तुत अलङ्कार का भी समावेश सम्भव है । अहेतु में भी व्याघात की ही तरह मूलतः हेतु के सद्भाव में कार्य का अभाव वाञ्छनीय माना गया है । रुद्रट ने प्राचीन आचार्यों के विशेषोक्ति अलङ्कार को नाम्ना स्वीकार नहीं किया है; किन्तु वे उस प्रसिद्ध अलङ्कार के स्वरूप की उपेक्षा नहीं कर सके । उसी अलङ्कार के स्वरूप के आधार पर रुद्रट ने व्याघात तथा अहेतु अलङ्कारों की कल्पना कर ली है ।
अतिशय वर्ग के अलङ्कारों के स्वरूप की समीक्षा से यह स्पष्ट हो जाता है कि रुद्रट ने इस वर्ग के अनेक अलङ्कारों के स्वरूप की कल्पना स्वतन्त्र रूप से की है । विशेष, अधिक, विषम, असङ्गति, पिहित आदि अलङ्कारों की उद्भावना इसका प्रमाण है ।
आचार्य रुद्रट के 'काव्यालङ्कार' में विवेचित नवीन अभिधान वाले उक्त अलङ्कारों के स्रोत -सन्धान के उपरान्त हम उनके उन अलङ्कारों के उद्गम पर विचार करेंगे, जिनके नाम तो प्राचीन आचार्यों से गृहीत हैं; किन्तु उनके सामान्य स्वरूप की अथवा विशेष भेद की कल्पना स्वतन्त्र रूप से की गयी है । रुद्रट ने प्राचीन आचार्यों के जिन अलङ्कारों के नाम स्वीकार किये हैं, उनमें से अधिकांश के स्वरूप भी पूर्वाचार्य-सम्मत ही हैं । उदाहरणार्थ – वास्तव वर्ग जाति या स्वभावोक्ति, यथासंख्य, दीपक, लेश और हेतु; औपम्य वर्ग के उपमा रूपक, अपहनुति, समासोक्ति, अन्योक्ति या अप्रस्तुतप्रशंसा तथा दृष्टान्त; अतिशय वर्ग के उत्प्र ेक्षा और विरोध, एवं श्लेष वर्ग के श्लेष अलङ्कारों के स्वरूप की धारणा पूर्ववर्ती आचार्यों की तत्तदलङ्कार-धारणा से अभिन्न है । अनुप्रास एवं यमक अलङ्कारों के सम्बन्ध में भी कोई नवीन मान्यता नहीं प्रकट की गयी है । रुद्रट की जाति का स्वरूप भामह आदि आचार्यों की स्वभावोक्ति के स्वरूप से अभिन्न है । यथासंख्य और दीपक अलङ्कारों के लक्षण-निरूपण में भी रुद्रट भामह आदि आचार्यों की तद्विषयक धारणा से प्रभावित हैं । उन्होंने लेश के सम्बन्ध में दण्डी की धारणा को स्वीकार नहीं किया है । दण्डी ने उस अलङ्कार के सम्बन्ध में अन्य आचार्यों की जिस मान्यता की ओर सङ्क ेत किया था उसके अनुसार लेश की सत्ता व्याजस्तुति से पृथक् नहीं रह जाती । रुद्रट ने उसी मत के अनुसार दोष के गुणीभाव तथा गुण के दोषीभाव को लेश कहा है । यही कारण है कि रुद्रट को व्याजस्तुति की पृथक् सत्ता की कल्पना आवश्यक नहीं जान पड़ी होगी । उनके हेतु अलङ्कार का स्वरूप दण्डी के हेतु से मिलता-जुलता ही है । दोनों में