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२५२ ] अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण दूसरे रूप को परिभाषित करते हुए रुद्रट ने कहा है कि जहाँ कोई वस्तु अपने से असमान गुण वाली तथा अधिक गुण वाली वस्तु के संसर्ग में आकर उसके गुण को ही ग्रहण कर ले, वहाँ तद्गुण होता है।' तद्गुण अन्वर्था संज्ञा है ।
भोज ने तद्गुण को स्वतन्त्र अलङ्कार नहीं माना है। उन्होंने मीलित अलङ्कार के स्वरूप-निरूपण के क्रम में तद्गुण-मीलित, अतद्गुण-मीलित आदि भेदों का विवेचन किया है।२ स्पष्ट है कि भोज तद्गुण आदि को मीलित में ही समाविष्ट मानते होंगे। तद्गुण मीलित का सजातीय अवश्य है; पर उसे मीलित से अभिन्न या उसका अङ्ग मानना उचित नहीं। ___ मम्मट, रुय्यक, विश्वनाथ, जयदेव, अप्पय्य दीक्षित, जगन्नाथ आदि आचार्यों ने एक मत से तद्गुण का एक ही रूप स्वीकार किया है—'जहाँ कोई न्यून गुण वाली वस्तु (प्रस्तुत) अधिक गुण वाली (अप्रस्तुत) वस्तु के सम्पर्क में आने पर अपने गुण का त्याग कर दूसरी वस्तु के गुण को ग्रहण करती है, वहाँ तद्गुण होता है ।3 मम्मट, रुय्यक तथा विश्वनाथ ने उपमेय तथा उपमान में अन्य के उत्कृष्ट-गुण-ग्रहण की कल्पना की है; पर अप्पय्य दीक्षित, जगन्नाथ आदि ने दो वस्तुओं में उपमानोपमेय-भाव आवश्यक नहीं माना है। रुद्रट भी तद्गुण में उपमानोपमेय की आवश्यकता नहीं मानते थे। हिन्दी के रीतिकालीन आचार्यों को भी तद्गुण का यही स्वरूप मान्य रहा है। रुद्रटकल्पित तद्गुण का प्रथम रूप, जिसे मम्मट ने सामान्य कहा था, पीछे चल कर सामान्य के रूप में ही स्वीकृत हुआ।
अतद्गुण के स्वरूप की कल्पना तद्गुण की कल्पना के उपरान्त हुई है। भोज ने मीलित के तद्गुण भेद के साथ अतद्गुण भेद का भी उल्लेख किया. था।४ तद्गुण के विपर्यय-रूप की कल्पना भोज के मन में थी, यद्यपि वे सद्गुण तथा अतद्गुण में से किसीको भी स्वतन्त्र अलङ्कार नहीं मानते थे।
१. असमानगुणं यस्मिन्नतिबहलगुणेन वस्तुना वस्तु ।
संसृष्टं तद्गुणतां धत्तेऽन्यस्तद्गुणः स इति ।-रुद्रट, काव्यालं० ९,२४ २. द्रष्टव्य-सरस्वतीकण्ठाभरण, ३,४१ ३. स्वमुत्सृज्य गुणं योगादत्युज्ज्वलगुणस्य यत् । वस्तु तद्गुणतामेति भण्यते स तु तद्गुणः ॥ -मम्मट, काव्यप्रकाश १०,२०४, द्रष्टव्य-रुय्यक, अलङ्कार सू० ७२
तथा अप्पय्यदीक्षित, कुवलयानन्द, १४१ .. ४, द्रष्टव्य-सरस्वतीकण्ठाभरण ३,४१